संदर्भ- भाजपा विधायक भवानीसिंह राजावत की बयानवीर राजनीति
-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-
तीन बार विधायकी (लाडपुरा कोटा) का चुनाव जीतने और पहली बार में ही प्रदेश सरकार में संसदीय सचिव पद पर कामकाज के अनुभव वाले भाजपा नेता भवानी सिंह राजावत की अमर्यादित (बल्कि अशिष्ट) बयानबाजी को कोई सिर्फ उनकी बदलती फितरत से जोडक़र देख रहा है तो असहमति जताने के अपने अधिकार का मैं उपयोग करना ही चाहूंगा। राजावत कोई नासमझ नहीं हैं और ना ही अपरिपक्व राजनेता। पिछली वसुंधरा राजे सरकार (2003-2008 ) में संसदीय सचिव रहते उनकी संजीदगी के कई उदाहरण हैं। सीएम राजे के निकट और वफादार लोगों में उनकी गिनती होती थी। तब कोटा शहर के दोनों युवा विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया था। लेकिन, नेतृत्व के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा में उनके अंक अधिक होते थे। अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद 2008 के चुनावों में जनता ने राजे सरकार को विदा कर दिया लेकिन कोटा के दोनों युवा नेता विधानसभा पहुंचे। और, 2013 में सत्ता में भाजपा की प्रचण्ड बहुमत (163 / 200) के साथ वापसी हो गई। कई कद्दावर नेता जीत आए। इधर, गंगा में भी काफी पानी बह गया। वक्त के कई हिस्से करवट ले चुके थे। शीर्ष नेतृत्व और प्रदेश नेतृत्व के बीच खाई और खींचतान की खबरें भी सुर्खियां रहने लगी। खेमेबंदी चुनाव के वक्त ही हो गई थी। लिहाजा, चुनाव जीतने के बाद राजे सीएम बनने में कामयाब तो हो गई लेकिन अनिश्चितता के बादल शुरू से मंडराते रहे। इन हालात में बड़ी चुनौति थी मंत्रिपरिषद गठन। जाहिर है, खेमेबंदी और अनिश्चितता को टालने या स्थिर बनाए रखमें सक्षम सिपहसालार ही तय हुए। लिहाजा, मंत्रिपरिषद में इन स्वयंभू वरिष्ठों को स् थान नहीं मिला। अन्दरखाने की बदलती राजनीति और प्रबन्धकीय कौशल के चलते एक को दिल्ली की राजनीति में भेज दिया गया। उन्होंने वहां भी अपना कौशल दिखाते हुए और स्थानीय प्रबन्धन मजबूत रखते हुए जनचेतना में नियमित उपस्थिति दर्जगी को सुनिश्चिित कर लिया।
इधर, राजावत अकेले पडऩे लगे। कोई दायित्व भी नहीं जिससे ऐसी उपस्थिति दर्ज होती रहे। तीन साल का इंतजार अब धैर्य देने लगा है। ऐसे में चर्चित बयानबाजी (....मगरमच्छ को गोली मार दो....हेलमेट लागू नहीं होने देंगे ...जैसे बयान इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं। ) राजनीतिक हलकों में सस्ता और मुफीद टूल माना जाता है। जानकार इसे समझते भी हैं। इसी रास्ते को राजावत ने चुना। एक राह, छोटे तीर और निशाने कई! अव्वल तो मीडिया में जगह मिल जाती है। बल्कि फ्रंट पेज पर मिल जाती है। दूसरे, वर्ग विशेष में संरक्षणवादी छवि बन रही। आलोचक और समर्थक दोनों ही बढऩे से लोकप्रियता में इजाफे का भ्रम भी बनाया तो जा ही सकता है।
अब आप कहेंगे कि ये तो सभी एक ही ट्रेक पर चलने वाले तीर हैं! ...तो दूसरा पहलू देखिये। प्रदेश की राजनीति करवट ले रही है। अनिश्चितता चुनाव के साथ से ही थी ही। खबरें भी हैं कि मैडम खुद भी अनसेफ मानती हैं। लोग तो पहले 2014 के आम चुनाव का इंतजार कर रहे थे। संघ कैडर से दिग्गज भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी असंतोष और खुले विरोध का ध्वज उठाकर चल ही रहे। चुनाव के बाद गुलाबचंद कटारिया मैडम खेमे में चले गए लेकिन तिवाड़ी झंडा बुलन्द किए हुए हैं। समानान्तर संगठन दीनदयालवाहिनी खड़ा कर दिया है। मांग वही, नेतृत्व परिवर्तन की। केन्द्रीय नेतृत्व तक संतुलन साधकर चल रहा। पिछले दिनों संघ कैडर के ही अलवर के दिग्गज ज्ञानदेव आहूजा भी खुले विरोध में आ गए। सरकार विरोधी बयानबाजी कर संगठन और कार्यकर्ताओं के लिए संघर्ष की बात कहने लगे। कहीं न कहीं ये स्वर तिवाड़ी से मिलते हुए दिखते हैं लेकिन संतुलित और सधे हुए। ना बिगाड़ हो, ना संतुष्ट दिखें स्टाइल में!
शायद$ इसी राह को भवानीसिंह भी साधने की चेष्टा कर रहे। अनर्गल बयानबाजी से वे कोशिश कर रहे कि असंतुष्टि का संदेश प्रदेश और केन्द्रीय नेतृत्व तक अनुशासनहीनता के चौखट छुए बिना, ....बचते हुए पहुंच जाए। तभी तो उन्होंने साशय हवाई अड्डे और हवाई सेवा के मामले में पीएम तक के विमान को नहीं उतरने देने की बात सार्वजनिक मंच से कह दी। इसे सिर्फ जुबान फिसलना मानना मूर्खता ही होगी। फिर कहूंगा कि राजावत नासमझ नहीं हैं। पीएम पर टिप्पणी से केन्द्रीय नेतृत्व तक संदेश पहुंचाने का उनका तीर निशाने पर लगा है।
पुनश्च, राजावत इस साशय बदबयानी से अपनी राजनीतिक पूंजी बढ़ाने, अंसतोष का संदेश देने और नेतृत्व परिवर्तन या वर्तमान नेतृत्व में मंत्रिपरिषद में बदलाव, दोनों ही दशा में कोई मुकाम हासिल करने का सधा हुआ प्रयास कर रहे हैं। शनिवार (25 मार्च) को उनके विधानसभा क्षेत्र में हुए एक लोकार्पण समारोह में नगर सुधार न्यास अध्यक्ष रामकुमार मेहता को मंच से ही स्पष्ट चेतावनी कि ‘आप सरकार से मनोनीत हो और मैं ढाई लाख लोगों का चुना हुआ ट्रस्टी’....आपको मेरी बात माननी ही होगी।’....में सीएम राजे के अप्रत्यक्ष विरोध (सब जानते हैं कि मेहता झालावाड़ जिले के हैं और सीएम राजे के खास होने के कारण ही उन्हें कोटा यूआईटी चेयरमैन पद मिला) और अपनी जनप्रतिनिधित्व की ताकत, दोनों का संदेश निहित था।
बहरहाल, देखना दिलचस्प होगा कि राजावत के तीर निशाने पर ही लगते हुए उन्हें अपनी मंशानुरूप मुकाम दिलाएंगे या फिर समय के साथ सुधिजन सुर्खियां अन्दर के पन्नों पर ले जाएंगे।
dhitendra.sharma@epatrika.com/ dhitendra.sharma@gmail.com (दिनांक 26 मार्च 2017 को लिखित/ प्रकाशित)
-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-
तीन बार विधायकी (लाडपुरा कोटा) का चुनाव जीतने और पहली बार में ही प्रदेश सरकार में संसदीय सचिव पद पर कामकाज के अनुभव वाले भाजपा नेता भवानी सिंह राजावत की अमर्यादित (बल्कि अशिष्ट) बयानबाजी को कोई सिर्फ उनकी बदलती फितरत से जोडक़र देख रहा है तो असहमति जताने के अपने अधिकार का मैं उपयोग करना ही चाहूंगा। राजावत कोई नासमझ नहीं हैं और ना ही अपरिपक्व राजनेता। पिछली वसुंधरा राजे सरकार (2003-2008 ) में संसदीय सचिव रहते उनकी संजीदगी के कई उदाहरण हैं। सीएम राजे के निकट और वफादार लोगों में उनकी गिनती होती थी। तब कोटा शहर के दोनों युवा विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया था। लेकिन, नेतृत्व के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा में उनके अंक अधिक होते थे। अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद 2008 के चुनावों में जनता ने राजे सरकार को विदा कर दिया लेकिन कोटा के दोनों युवा नेता विधानसभा पहुंचे। और, 2013 में सत्ता में भाजपा की प्रचण्ड बहुमत (163 / 200) के साथ वापसी हो गई। कई कद्दावर नेता जीत आए। इधर, गंगा में भी काफी पानी बह गया। वक्त के कई हिस्से करवट ले चुके थे। शीर्ष नेतृत्व और प्रदेश नेतृत्व के बीच खाई और खींचतान की खबरें भी सुर्खियां रहने लगी। खेमेबंदी चुनाव के वक्त ही हो गई थी। लिहाजा, चुनाव जीतने के बाद राजे सीएम बनने में कामयाब तो हो गई लेकिन अनिश्चितता के बादल शुरू से मंडराते रहे। इन हालात में बड़ी चुनौति थी मंत्रिपरिषद गठन। जाहिर है, खेमेबंदी और अनिश्चितता को टालने या स्थिर बनाए रखमें सक्षम सिपहसालार ही तय हुए। लिहाजा, मंत्रिपरिषद में इन स्वयंभू वरिष्ठों को स् थान नहीं मिला। अन्दरखाने की बदलती राजनीति और प्रबन्धकीय कौशल के चलते एक को दिल्ली की राजनीति में भेज दिया गया। उन्होंने वहां भी अपना कौशल दिखाते हुए और स्थानीय प्रबन्धन मजबूत रखते हुए जनचेतना में नियमित उपस्थिति दर्जगी को सुनिश्चिित कर लिया।
इधर, राजावत अकेले पडऩे लगे। कोई दायित्व भी नहीं जिससे ऐसी उपस्थिति दर्ज होती रहे। तीन साल का इंतजार अब धैर्य देने लगा है। ऐसे में चर्चित बयानबाजी (....मगरमच्छ को गोली मार दो....हेलमेट लागू नहीं होने देंगे ...जैसे बयान इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं। ) राजनीतिक हलकों में सस्ता और मुफीद टूल माना जाता है। जानकार इसे समझते भी हैं। इसी रास्ते को राजावत ने चुना। एक राह, छोटे तीर और निशाने कई! अव्वल तो मीडिया में जगह मिल जाती है। बल्कि फ्रंट पेज पर मिल जाती है। दूसरे, वर्ग विशेष में संरक्षणवादी छवि बन रही। आलोचक और समर्थक दोनों ही बढऩे से लोकप्रियता में इजाफे का भ्रम भी बनाया तो जा ही सकता है।
अब आप कहेंगे कि ये तो सभी एक ही ट्रेक पर चलने वाले तीर हैं! ...तो दूसरा पहलू देखिये। प्रदेश की राजनीति करवट ले रही है। अनिश्चितता चुनाव के साथ से ही थी ही। खबरें भी हैं कि मैडम खुद भी अनसेफ मानती हैं। लोग तो पहले 2014 के आम चुनाव का इंतजार कर रहे थे। संघ कैडर से दिग्गज भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी असंतोष और खुले विरोध का ध्वज उठाकर चल ही रहे। चुनाव के बाद गुलाबचंद कटारिया मैडम खेमे में चले गए लेकिन तिवाड़ी झंडा बुलन्द किए हुए हैं। समानान्तर संगठन दीनदयालवाहिनी खड़ा कर दिया है। मांग वही, नेतृत्व परिवर्तन की। केन्द्रीय नेतृत्व तक संतुलन साधकर चल रहा। पिछले दिनों संघ कैडर के ही अलवर के दिग्गज ज्ञानदेव आहूजा भी खुले विरोध में आ गए। सरकार विरोधी बयानबाजी कर संगठन और कार्यकर्ताओं के लिए संघर्ष की बात कहने लगे। कहीं न कहीं ये स्वर तिवाड़ी से मिलते हुए दिखते हैं लेकिन संतुलित और सधे हुए। ना बिगाड़ हो, ना संतुष्ट दिखें स्टाइल में!
शायद$ इसी राह को भवानीसिंह भी साधने की चेष्टा कर रहे। अनर्गल बयानबाजी से वे कोशिश कर रहे कि असंतुष्टि का संदेश प्रदेश और केन्द्रीय नेतृत्व तक अनुशासनहीनता के चौखट छुए बिना, ....बचते हुए पहुंच जाए। तभी तो उन्होंने साशय हवाई अड्डे और हवाई सेवा के मामले में पीएम तक के विमान को नहीं उतरने देने की बात सार्वजनिक मंच से कह दी। इसे सिर्फ जुबान फिसलना मानना मूर्खता ही होगी। फिर कहूंगा कि राजावत नासमझ नहीं हैं। पीएम पर टिप्पणी से केन्द्रीय नेतृत्व तक संदेश पहुंचाने का उनका तीर निशाने पर लगा है।
पुनश्च, राजावत इस साशय बदबयानी से अपनी राजनीतिक पूंजी बढ़ाने, अंसतोष का संदेश देने और नेतृत्व परिवर्तन या वर्तमान नेतृत्व में मंत्रिपरिषद में बदलाव, दोनों ही दशा में कोई मुकाम हासिल करने का सधा हुआ प्रयास कर रहे हैं। शनिवार (25 मार्च) को उनके विधानसभा क्षेत्र में हुए एक लोकार्पण समारोह में नगर सुधार न्यास अध्यक्ष रामकुमार मेहता को मंच से ही स्पष्ट चेतावनी कि ‘आप सरकार से मनोनीत हो और मैं ढाई लाख लोगों का चुना हुआ ट्रस्टी’....आपको मेरी बात माननी ही होगी।’....में सीएम राजे के अप्रत्यक्ष विरोध (सब जानते हैं कि मेहता झालावाड़ जिले के हैं और सीएम राजे के खास होने के कारण ही उन्हें कोटा यूआईटी चेयरमैन पद मिला) और अपनी जनप्रतिनिधित्व की ताकत, दोनों का संदेश निहित था।
बहरहाल, देखना दिलचस्प होगा कि राजावत के तीर निशाने पर ही लगते हुए उन्हें अपनी मंशानुरूप मुकाम दिलाएंगे या फिर समय के साथ सुधिजन सुर्खियां अन्दर के पन्नों पर ले जाएंगे।
dhitendra.sharma@epatrika.com/ dhitendra.sharma@gmail.com (दिनांक 26 मार्च 2017 को लिखित/ प्रकाशित)
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