संदर्भ- सामाजिक आयोजनों का संदेश क्या?
-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-
इस आलेख पर आगे बढऩे से पहले मैं विप्र समुदाय से क्षमा प्रार्थना करते हुए (क्योंकि संभव है ज्यादातर मेरे इस विचार से असहमति रखते हों) स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि अपने विचार प्रकटीकरण के दौरान मेरी मंशा ना तो व्यापक सामुदायिक विश्वास को चोट पहुंचाने की है और ना ही समाज का बौद्धिक-रणनीतिक ठेकेदार होने का दावा प्रस्तुत करने की! यह सिर्फ समाचार-पत्रों में 2 जनवरी 2023 प्रकाशित एक समाचार पढऩे और उस दौरान मन में उठे विचारों का प्रकटीकरण मात्र है। इस विचार से कि शायद यह चिंतनधारा व्यापक बहस का हिस्सा बन कोई मंथन सत्व प्रदान कर दे।
समाचार यह कि, कोटा में ब्राह्मणों के कल्याण को समर्पित स्वनामधन्य एक सामाजिक संगठन के स्थापना दिवस आयोजन में एक जनवरी को 701 विप्र बंधुओं ने फरसा यानी शस्त्र पूजन किया। गौरव के साथ विप्र प्राधान्य समाचार-पत्रों में इसे बड़ा स्थान भी मिला। आयोजन में सर्वसमाज कल्याणकारी कार्य रक्तदान भी हुआ लेकिन हैडलाइन शस्त्र-शक्ति संदेशवाही इवेंट फरसा पूजन ही बना। कोटा दक्षिण के विप्र विधायक संदीप शर्मा ने तो फरसा पूजन को ब्राह्मणों की परंपरा करार दिया। आयोजन में राजस्थान विप्र कल्याण बोर्ड अध्यक्ष महेश शर्मा भी मौजूद थे। बेशक सामाजिक आयोजनों से बंधुता में बढ़ोतरी है। एकता का भाव जगता है, मेल मिलाप बढ़ता है लेकिन इनकी सर्वाधिक सार्थकता सामाजिक शिक्षा और संदेश में निहित है जिससे समाज का व्यापक स्तर पर भला हो।
हम अपनी थाती पर नजरें दौड़ाएं या प्राचीन भारतीय समाज व्यवस्था को देखें तो ब्राह्मण की भूमिका समाज व राजव्यवस्था का मार्गदर्शन करने की ही रही है। शस्त्र क्षत्रिय अथवा मार्शल कौम की पहचान रही है और वेद-उपनिषद-ब्राह्मण आदि शास्त्र ब्राह्मणों की। ब्राह्मण को भारतीय समाज शिक्षक की भूमिका में देखता आया है, गुरुदेव -गुरुमहाराज की पदवी देता आया है। शस्त्र पूजक से भी उच्च स्थान इस शास्त्र पूजक विप्र वर्ग का रहा है। निसंदेह अत्याचार की अनुभूति होने पर विष्णु भगवान परशुराम अवतारी बने और फरसे को प्रतीक बनाया। लेकिन यह सिर्फ एक कालखंड मात्र रहा। विराट और ब्रह्माण्ड तुल्य महिमा में यह अति संक्षिप्त है, और वो भी तत्कालीन हालात के वशीभूत होकर ना कि सर्वकालिक। ब्राह्मण की सर्वकालिक पहचान तो वेद शास्त्र ही हैं। सोचिये ना! महर्षि वेद व्यास, विश्वामित्र, गौतम ऋषि....! क्या ये हमारे गौरव नहीं!
तल्खी और सामुदायिक टकराव के दौर में तो ब्राह्मण समुदाय का दायित्व और बढ़ जाता है। हम समाज के बौद्धिक-नेतृत्वकर्ता, मार्गदर्शक रहे हैं। क्रोध और तल्ख, आक्रामक शस्त्र-शक्ति लेपित छवि हमारा और नए बच्चों आधार क्यों बनें? क्यों न हम समाज को नई दिशा देने वाले, गुरु महाराज की पदवी की ओर बढऩे को अपनी नई पीढ़ी को प्रेरित करें। और, खास बात जिसने यह सब सोचने को मजबूर किया वो यह कि जहां यह आयोजन हुआ वह चंबल तट पर स्थित पुनीत गोदावरी धाम तो वेद शिक्षा की भूमि है। वेद विद्यालय का संचालन वहां होता है। क्या ही सुन्दर दृश्य होता जब बटुक वेद पूजन करते। शास्त्रोक्त लहरें दूर तक विप्र समाज का संदेश पहुंचाती!
जरा सोचिये! फरसा पूजन में विप्र बच्चों और बंधुओं का अधिक कल्याण है या शास्त्र पूजन में! चतुर्वेद आदि शास्त्र से ब्राह्मण समाज और उसकी नई पीढ़ी का अधिक कल्याण है या फरसा से! मेरी नजर में तो उत्तर वेद शिक्षा और पूजन हैं, आपका दृष्टिकोण समाज के कर्ताधर्ता बने पदाधिकरियों तक
जरूर पहुंचाइये!