हमारे लोकतांत्रिक चरित्र की यही असल तस्वीर है। हमारा सामाजिक चरित्र मोटे तौर पर भावना-प्रधान है और समाज यह प्राथमिकता से चाहता है कि काम कोई करे न करे, हमारा प्रतिनिधि हमारे व्यक्तिगत-सामूहिक सुख-दुख में साथ खड़ा रहे। उसकी बात सुने। ऐसे में हमारे लोकतांत्रिक चरित्र में लोक-जुड़ाव सर्वोच्च प्राथमिकता पर आ गया और विकास बाद के पायदानों पर। अगर लोगों से जुड़ाव शासनिक जिम्मेदारियों के चलते कम हो गया तो जनआक्रोश राजनेता को जमीन पर उतारने को आतुर हो जाता है, सत्ता से हटा देता है।
-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-
राजस्थान में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार में ऊर्जा राज्यमंत्री हीरालाल नागर ने भारतीय चुनावी राजनीति के चेहरे पर जो कड़वी टिप्पणी की है वो हमारे लोकतांत्रिक सौन्दर्य का राजनेताओं की नजर में असल रूप है। हाल ही कोटा जिले के अपने विधानसभा क्षेत्र के सीमल्या कस्बे में एक बैठक में उन्होंने कार्यकर्ताओं की सियासी नसीहत दी। बैठक के वायरल वीडियो में मंत्री नागर कार्यकर्ताओं से कह रहे हैं- मैं एक बात कह दूं भाइयों, कोई यह कह दे कि विकास कराने से चुनाव जीत जाते हैं तो यह भूल मत करना। विकास से कोई चुनाव नहीं जीतता है, यह गलतफहमी है कि हमने विकास कर दिया और अब फलां गांव में जाना ही नहीं है। आप पक्का वहां से हारोगे। वे इससे आगे मुद्दे की कहते हैं- आप विकास मत करो, लेकिन गांवों में सतत संपर्क बनाए रखो, लोगों से मिलते-जुलते रहो, हारी-बीमारी में मदद करते रहो...सौ परसेंट चुनाव जीतोगे। चुनाव में अपन कहते हैं न कि यह नहीं हुआ तो वह जाएगा.....कुछ नहीं हो रहा, सब करके देख लिया।
तमाम आलोचनाओं के बीच हमें भी यह सच तो स्वीकारना ही होगा कि यह लोकतांत्रिक-सार नागर को अपने वरिष्ठजनों के ज्ञानानुभव और स्वयंसीखे सबकों से ही बोध आया है। हीरालाल नागर हवा-हवाई नहीं, जमीनी नेता हैं और चुनावी प्रबन्धन में माहिर माने जाने वाले संगठक लोकसभा स्पीकर ओम बिरला के पक्के शागिर्दो में शुमार माने जाते हैं।
असल में, चुनावी राजनीति और विकास का द्वंद्व नया नहीं है। राजस्थान में गांव-गांव में सीधा संपर्क रखने वाले, बच्चे-बच्चे की जुबां पर बाबोसा के नाम से ख्यात भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता रहे भैरोसिंह शेखावत भी अक्सर यही बात कहते थे। शेखावत तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे, काम भी खूब कराया लेकिन चुनाव जीतने का मंत्र उनका भी लोक-जुड़ाव (पीपुल्स कनेक्ट) ही था। प्रदेशभर में किसी भी कोने में जाते, कार्यकर्ताओं को उनके नाम से पुकारना उनके स्वभाव में शुमार था। लेकिन सत्ता में रहने के बाद उनकी भी सरकारें चुनाव हारी। प्रदेश में वसुन्धरा राजे के शासन में सरकार ने विकास के कई प्रतिमान गढ़े, सत्ता में रहते विकास पर ही चुनाव लड़ती लेकिन 2008 और 2018 में उनकी सरकार दुबारा नहीं लौटी। यही हाल कद्दावर कांग्रेस नेता अशोक गहलोत की सरकार के रहे। गहलोत सरकार के पहले कार्यकाल में विकास के मद्देनजर बेहद सख्त शासन चला। अतिक्रमण हटे, सडक़ें चौड़ी हुई, फलाईओवर्स का जाल बिछा, लेकिन विधानसभा चुनाव में तगड़ी हार मिली। दूसरे कार्यकाल वाली सरकार संतुलन साधकर चली लेकिन पांच वर्ष बाद हार नहीं टाल सकी। और, तीसरा कार्यकाल मुक्तहस्त लोककल्याण की योजनाओं के नए प्रतिमान गढ़ गया, लेकिन सारे विश्लेषकों को झुठलाते हुए जनता ने शासन बदल दिया। केन्द्र में अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार कई वर्षों नारों के बाद आई थी। सडक़ों का आज जो जाल देश में दिख रहा है यह उसी दूरदृष्टा-शासन की देन है। इसके अलावा परमाणु शक्ति संपन्नता, आर्थिक उदारीकरण के दूसरे चरण के क्रियान्वयन, फौजी शहादत को उन्नत पैकेज समेत विकास के कई कीर्तिमान अटल बिहारी सरकार के नाम हैं, कई योजनाएं हैं लेकिन शाइनिंग इंडिया के नारे को धता बताते हुए जनता ने उनसे अप्रत्याशित रूप से शासन की बागडोर छीन ली। इधर, कोटा में ही दाऊदयाल जोशी जैस सहज-सरल सुलभ भाजपा नेता रहे जो मजबूत जनजुड़ाव की बदौलत पार्षद से लेकर संासद तक के चुनाव में कभी नहीं हारे।
दरअसल, यही हमारे लोकतांत्रिक चरित्र की असल तस्वीर है। और, विकास के मुुद्दे को निचले पायदान पर धकेलने में राजनेताओं के साथ ही हम स्वयं और नागरिक बोधपरक जनशिक्षा अभियान से जुड़े तमाम बुद्धिजीवी भी कम दोषी नहीं हैं। हमारा सामाजिक चरित्र मोटे तौर पर भावना प्रधान है और समाज यह प्राथमिकता से चाहता है कि काम कोई करे न करे, हमारा प्रतिनिधि हमारे व्यक्तिगत-सामूहिक सुख-दुख में साथ खड़ा रहे। उसकी बात सुने। ऐसे में हमारे लोकतांत्रिक चरित्र में लोक-जुड़ाव सर्वोच्च प्राथमिकता पर आ गया और विकास बाद के पायदानों पर। अगर लोगों से जुड़ाव शासनिक जिम्मेदारियों के चलते कम हो गया तो जनआक्रोश राजनेता को जमीन पर उतारने को आतुर हो जाता है, सत्ता से हटा देता है।
निस्संदेह, नागरिकता बोध शिक्षा का इसमें बड़ा बदलावकारी योगदान हो सकता है। आखिर, शासन की बागडोर अपने प्रतिनिधियों को सौंपने के पीछे स्थापित उद््रदेश्य तो राष्ट्र-समाज का विकास और आम नागरिकों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाना ही तो है। लोकतंत्र की परिभाषा ही सही है, जनता के लिए, जनता के द्वारा चलाया जाने वाले जनता का शासन! ऐसे में तस्वीर का रुख विकासोन्नमुख तो करना ही होगा। विकास के नाम पर चुनाव जीते जा सकें, इस बदलाव के लिए न केवल राजनीतिक दलों को, वरन आमजन में मौजूद बुद्धिजीवियों को भी प्रयास करना होगा। बल्कि, नागरिक बोध शिक्षा (सिविक सेंस) प्रदाताओं का एक तंत्र विकसित करना चाहिए जो व्यापक मानव स्वभाव को उन्नत लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिकता बोध से संपन्न करे। हां सनद रहे, लोक-जुड़ाव इनमें कहीं पीछे न छूट जाए, वह तो प्राथमिकता पर रखना ही होगा। बराबर विकास के पायदान पर ही!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
dhitendra.sharma@gmail.com
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