Tuesday, September 23, 2025

आस्था और व्यवस्था में संतुलन जरूरी

यहां पर्वों के उत्साहपूर्ण आयोजनों को संकुचित करने अथवा बांधने का सुझाव देने की मंशा कतई नहीं है। ना ही आम रास्तों के अवरुद्ध होने से जूझती जिन्दगी को सरल बनाने के लिए उत्सवों के महत्व को नकारने का दुस्साहस है। लेकिन, संतुलन की बात तो अवश्य करनी होगी। आस्था और व्यवस्था का संतुलन! यह संतुलन बनाना अब वक्त की मांग है! कुशल और प्रगतिशील शासन की कटिबद्धता मतांध श्रद्धा के आगे नतमस्तक होकर आमजन को उसके हाल पर छोडऩा नहीं, आस्था और व्यवस्था दोनों को कानून के दो पलड़ों में साधकर लोककल्याण करना है!

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-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-

सनातन संस्कृति की विरासत को सहेजे और गंगा-जामुनी परंपराओं का वाहक होने के  चलते हिमालय की गोद में बसा पुण्यधरा हमारा भारतवर्ष  कश्मीर  से कन्याकुमारी तक और द्वारका से जगन्नाथ पुरी और  सुदूर पूर्वोत्तर अरुणाचल की वादियों तक शताब्दियों से धार्मिक-आस्था का बड़ा केन्द्र है। हर धार्मिक उत्सव को यह पवित्रता और अप्रतिम उल्लास से आलिंगन करता दिखता है। हाल ही गणपति उत्सव की धूम रही। हर गांव-शहर, महानगर क्षेत्र में सैकड़ों-हजारों पांडाल में गणपति बप्पा को विराजित किए श्रद्धालु भक्ति से सराबोर रहे। पांडालों के अलावा गली-मोहल्लों में बप्पा की प्रतिष्ठा हुई है सो अलग। हर कोई बुद्धि-प्रदाता की भक्ति में डूबा। नित्य-प्रति संकीर्तन हुए। जगह-जगह मेले लगे। यह आस्थाजन्य एक पहलू रहा है। 

लेकिन, दूसरा पहलू भी कम महत्वपूर्ण नहीं था। हर चंद कदम दूरी पर पांडाल आम रास्तों को अवरुद्ध किए रहे। कई मोहल्लों में रास्ते रोक कर गणपति विराजित किए गए। ज्यादातर स्थानों पर चौराहों का उपयोग हुआ और नित्य-प्रति होता रहता है। रोज शाम को जाम जैसे हालात बन जाते हैं। इनमें कई मुख्य मार्ग तक शामिल हैं। गणपति उत्सव कोई एक दिन का नहीं। दस दिन बाद बप्पा की विदाई हुई। ऐसे में रोजमर्रा की जिन्दगी यातायात अवरोध से जूझती रही। 


और यहां, बात सिर्फ गणपति उत्सव की नहीं है। अब त्योहारी सत्र चल पड़ा है। आगामी तीन माह तक त्योहारों की धूम रहेगी। अनन्त चुतुर्दशी पर बप्पा की विदाई के बाद शक्ति-आराधना पर्व नवरात्र चल रहे हैं। प्रतिवर्ष  की भांति पुनः देवी मां के पांडाल सजे हैं। पूरे नौ दिन देवी आराधक जागरणों से सडक़ें सराबोर रहेंगी। लगभग इन्हीं सभी स्थानों पर देवी पांडाल सजे है, अपितु और अधिक संख्या में! फिर इनके बाद दशहरा मेला आ रहा है। कई स्थानों पर दशहरा मेला भी पखवाड़े भर का लगने लगा है। फिर, दीपावली, देव उठनी एकादशी, कार्तिक पूर्णिमा मेले आदि- आदि! इस सबके अलावा विभिन्न सामुदायिक धार्मिक-पर्वों पर सडक़ों पर सजने वाला कथित अस्थाई लेकिन लगभग स्थाई हो चुका बाजार गति-शक्ति में बाधक बनता है। क्या इस दिशा में प्रशासन और राष्ट्र-राज्य सत्ता में बैठे जिम्मेदार लोगों को नहीं सोचना चाहिए। 







यहां इन पर्वों के उत्साहपूर्ण आयोजनों को संकुचित करने अथवा सीमाओं में बांधने का सुझाव देने की मंशा कतई नहीं है। ना ही आम रास्तों के अवरुद्ध होने से जूझती जिन्दगी को सरल बनाने के लिए उत्सवों के महत्व को नकारने का दुस्साहस है। लेकिन, संतुलन की बात तो अवश्य करनी होगी। आस्था और व्यवस्था का संतुलन! संविधान स्वीकृत सर्व नगरिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता का संतुलन ! 

मुद्दे की बात यह कि जब प्रतिवर्ष तय कैलेण्डर की भांति से सब आयोजन होने ही हैं तो इन्हें आमजन जीवन की गति में बाधा पहुंचाए बिना इसी उत्साह से सम्पन्न कराने की कोशिशें क्यों नहीं होती! खासकर तब, जबकि पिछले एक दशक में राजनीति में भाग्य आजमाने के आकांक्षी युवाओं के लिए ऐसे अयोजन और पांडाल "प्रथम पाठशाला" के रूप में लगभग स्थापित हो चुके हैं। और, यही लालसा ऐसे आयोजनों- पांडालों की संख्या में उत्तरोत्तर गुणात्मक वृद्धि ला रही है!

कहना ही होगा कि, यह संतुलन बनाना अब वक्त की मांग है। कुशल और प्रगतिशील शासन की कटिबद्धता मतांध श्रद्धा के आगे नतमस्तक होकर या आमजन को उसके हाल पर छोडऩा नहीं, आस्था और व्यवस्था दोनों को कानून के दो पलड़ों में साधकर लोककल्याण करना है।

(स्वतंत्र लेखक, राजनीतिक विश्लेषक और सामाजिक चिंतक।)

dhitendra.sharma@gmail.com

Saturday, August 30, 2025

वाकई पर्यटकों को खींच सकती है कोटा की अनंत चतुर्दशी शोभायात्रा



-धीतेन्द्र कुमार शर्मा -

मां चर्मण्यवती के किनारे स्थित कोटा शहर में पिछले 76 सालों से निकल रही अनंत चतुर्दशी शोभायात्रा के वर्तमान आयोजन समिति के कुछ सदस्यों ने पिछले दिनों जिला कलक्टर को ज्ञापन सौंप कर बहुत महत्वपूर्ण सुझाव दिया था। मुझे नहीं पता कि जिला कलक्टर ने उसे कितनी गंभीरता से लिया और क्या कार्रवाई की, लेकिन सुझाव मेरे मत में उत्तम था और कोटा को धार्मिक पर्यटन के नक्शे पर उभारने में मील का पत्थर साबित हो सकता है।

आयोजक कार्यकर्ताओं ने जिला कलक्टर को पिछले दिनों अनंत चतुर्दशी शोभायात्रा की भव्यता के बारे में बताते हुए सुझाव दिया था कि इस विशाल शोभायात्रा का लाइव प्रसारण पर्यटन विभाग के पोर्टल पर किया जाए और इसे पर्यटकों को आकर्षित करने की दृष्टि से पर्यटन विभाग के पोर्टल पर अपलोड भी किया जाए। बेशक, भले ही एक साधारण ज्ञापन के माध्यम से यह सुझाव मिला हो लेकिन कोटा को पर्यटन क्षेत्र में नई पहचान दिलाने में यह महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।

कोटा में अनंत चतुर्दशी का निकलने वाला भव्य जुलूस आज किसी पहचान का मोहताज नहीं। शायद ही, मुंबई को छोड़कर, अन्य शहरों में या देश के किसी भूभाग में इतने भव्य स्तर पर शोभायात्रा निकलती हो। राजस्थान में तो एकलौता शहर कोटा ही है जहां ऐसी भव्यता से शोभायात्रा निकलती है। इस जुलूस की भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शहर भर में 750 से ज्यादा गणपति उत्सव पांडाल सजाए जाते हैं और 10 दिन के उत्सव के बाद इन पांडालों में विराजित गणपति बप्पा को अनंत चतुर्दशी के दिन विदाई दी जाती है। मुख्य शोभायात्रा सूरजपोल गेट से शुरू होती है। शोभायात्रा में 75 से ज्यादा अखाड़े होते हैं जो एक स्थान पर करीब 15 मिनट तक अपने करतब दिखाते हैं। किशोर सागर तालाब में 1000 से ज्यादा गणेश प्रतिमाओं का विसर्जन इस दिन होता है। डेढ़ सौ से ज्यादा झांकियां, तीन दर्जन से ज्यादा भजन मंडलियां और दर्जन भर से ज्यादा डांडिया रास टोलियां इस शोभायात्रा में अपना जलवा बिखेरती चलती है।
कोटा में अनंत चतुर्दशी का निकलने वाला भव्य जुलूस आज किसी पहचान का मोहताज नहीं। शायद ही, मुंबई को छोड़कर, अन्य शहरों में या देश के किसी भूभाग में इतने भव्य स्तर पर शोभायात्रा निकलती हो। राजस्थान में तो एकलौता शहर कोटा ही है जहां ऐसी भव्यता से शोभायात्रा निकलती है। इस जुलूस की भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शहर भर में 750 से ज्यादा गणपति उत्सव पांडाल सजाए जाते हैं और 10 दिन के उत्सव के बाद इन पांडालों में विराजित गणपति बप्पा को अनंत चतुर्दशी के दिन विदाई दी जाती है। मुख्य शोभायात्रा सूरजपोल गेट से शुरू होती है। शोभायात्रा में 75 से ज्यादा अखाड़े होते हैं जो एक स्थान पर करीब 15 मिनट तक अपने करतब दिखाते हैं। किशोर सागर तालाब में 1000 से ज्यादा गणेश प्रतिमाओं का विसर्जन इस दिन होता है। डेढ़ सौ से ज्यादा झांकियां, तीन दर्जन से ज्यादा भजन मंडलियां और दर्जन भर से ज्यादा डांडिया रास टोलियां इस शोभायात्रा में अपना जलवा बिखेरती चलती है।

कोटा में अनंत चतुर्दशी का निकलने वाला भव्य जुलूस आज किसी पहचान का मोहताज नहीं। शायद ही, मुंबई को छोड़कर, अन्य शहरों में या देश के किसी भूभाग में इतने भव्य स्तर पर शोभायात्रा निकलती हो। राजस्थान में तो एकलौता शहर कोटा ही है जहां ऐसी भव्यता से शोभायात्रा निकलती है। इस जुलूस की भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शहर भर में 750 से ज्यादा गणपति उत्सव पांडाल सजाए जाते हैं और 10 दिन के उत्सव के बाद इन पांडालों में विराजित गणपति बप्पा को अनंत चतुर्दशी के दिन विदाई दी जाती है। मुख्य शोभायात्रा सूरजपोल गेट से शुरू होती है। शोभायात्रा में 75 से ज्यादा अखाड़े होते हैं जो एक स्थान पर करीब 15 मिनट तक अपने करतब दिखाते हैं। किशोर सागर तालाब में 1000 से ज्यादा गणेश प्रतिमाओं का विसर्जन इस दिन होता है। डेढ़ सौ से ज्यादा झांकियां, तीन दर्जन से ज्यादा भजन मंडलियां और दर्जन भर से ज्यादा डांडिया रास टोलियां इस शोभायात्रा में अपना जलवा बिखेरती चलती है।
कोटा में अनंत चतुर्दशी का निकलने वाला भव्य जुलूस आज किसी पहचान का मोहताज नहीं। शायद ही, मुंबई को छोड़कर, अन्य शहरों में या देश के किसी भूभाग में इतने भव्य स्तर पर शोभायात्रा निकलती हो। राजस्थान में तो एकलौता शहर कोटा ही है जहां ऐसी भव्यता से शोभायात्रा निकलती है। इस जुलूस की भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शहर भर में 750 से ज्यादा गणपति उत्सव पांडाल सजाए जाते हैं और 10 दिन के उत्सव के बाद इन पांडालों में विराजित गणपति बप्पा को अनंत चतुर्दशी के दिन विदाई दी जाती है। मुख्य शोभायात्रा सूरजपोल गेट से शुरू होती है। शोभायात्रा में 75 से ज्यादा अखाड़े होते हैं जो एक स्थान पर करीब 15 मिनट तक अपने करतब दिखाते हैं। किशोर सागर तालाब में 1000 से ज्यादा गणेश प्रतिमाओं का विसर्जन इस दिन होता है। डेढ़ सौ से ज्यादा झांकियां, तीन दर्जन से ज्यादा भजन मंडलियां और दर्जन भर से ज्यादा डांडिया रास टोलियां इस शोभायात्रा में अपना जलवा बिखेरती चलती है।

शोभायात्रा की भव्यता की गवाही में यह तथ्य भी खड़ा है कि 2 लाख से अधिक लोग इसके चश्मदीद बनते हैं, इसमें शामिल होते हैं। और, सारी व्यवस्थाओं को चाक-चौबंद रखने के लिए 15 दिन से अधिक समय तक जिला प्रशासन तैयारी करता है। साढ़े 3 हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मी शोभायात्रा की व्यवस्था में तैनात रहते है। विश्वास कीजिए, 15 से 18 घंटे तक देश की कोचिंग राजधानी की सड़कों पर गणपति बप्पा के विसर्जन की शोभायात्रा की धूम होती है, मेला सा लगा रहता है। दोपहर 12 बजे शुरू होने और तकरीबन पांच किलोमीटर के मार्ग से गुजरने के बाद शोभायात्रा में रात 12 बजते-बजते पहली गणपति प्रतिमा का विसर्जन हो पाता है। और, विसर्जन का यह सिलसिला तड़के तक चलता रहता है।

इतने व्यापक स्तर पर और अद्भुत भव्यता, सुर्ख केसरिया शौर्य के साथ आयोजित होने वाली शोभायात्रा का शहर से बाहर देश-दुनिया में पर्यटन पोर्टल के जरिए क्यों ना प्रचार प्रसार होना चाहिए? देश में आने वाला हर तीसरा पर्यटक राजस्थान और राजस्थान में आने वाले पर्यटकों का बड़ा वर्ग हाड़ौती में आता है। सावन भादो के इन महीनो में रामदेवरा में बाबा रामदेव का मेला, बूंदी और जयपुर की तीज की सवारी जैसे धार्मिक आयोजन होते हैं और बड़ी संख्या में पर्यटक इन्हें देखने पहुंचते भी हैं। ऐसे में कोटा की अनन्त चतुर्दशी शोभायात्रा को पर्यटन के नक्शे पर उभार दिया जाए और उसे दिशा में गंभीरता से प्रयास किए जाएं तो हाडोती की तरफ देसी -विदेशी पर्यटकों को खींचा जा सकता है। और, यहां पर्यटक आने पर रिवर फ्रंट, ऑक्सिजोन, अभेड़ा बायोलॉजिकल पार्क समेत अन्य जो पर्यटन की दृष्टि से निर्माण हुए हैं उनका भी लाभ राजस्व की दृष्टि से शहर को मिल सकता है।


जहां तक सुझाव पर अमलीजामा पहनाने की बात है और पर्यटकों की व्यवस्था की बात है तो शोभायात्रा के दौरान तीन से चार जगह वर्गीकृत रूप से पर्यटकों के बैठने की व्यवस्था की जा सकती है। इनमें शुरुआत स्थल सूरजपोल, कैथूनी पोल के अलावा मुख्य रूप से रामपुरा में महात्मा गांधी स्कूल और महारानी स्कूल के आसपास इनकी व्यवस्था की जा सकती है। पीछे ही बने रिवर फ्रंट से निकासी आदि का प्रबंध भी हो सकता है। रामपुरा इस शोभायात्रा का हृदय स्थल होता है और यहां पहुंचने पर शोभायात्रा अपने यौवन पर होती है, इसलिए सर्वाधिक पर्यटकों के बैठने की व्यवस्था रामपुरा में किया जाना उचित होगा। विसर्जन देखने के इच्छुक पर्यटकों के लिए किशोर सागर तालाब स्थित बारहदरी में अलग से दीर्घा बना कर सीमित संख्या में पास देकर की जा सकती है।

पर्यटकों को इस शोभायात्रा की ओर खींचने का यह प्रयास नि:संदेह है कोटा के पर्यटन के पंखों को नई ऊंचाई दे सकता हैं। बहरहाल, सारा दारोमदार जिला प्रशासन पर है। अपेक्षा की जानी चाहिए कि नवाचार के लिए पहचाने जाने वाले वर्तमान जिला कलक्टर इस दिशा में कुछ करेंगे और कोटा के पर्यटन फलक पर नई इबारत लिखने की चेष्टा होगी।
पर्यटकों को इस शोभायात्रा की ओर खींचने का यह प्रयास नि:संदेह है कोटा के पर्यटन के पंखों को नई ऊंचाई दे सकता हैं। बहरहाल, सारा दारोमदार जिला प्रशासन पर है। अपेक्षा की जानी चाहिए कि नवाचार के लिए पहचाने जाने वाले वर्तमान जिला कलक्टर इस दिशा में कुछ करेंगे और कोटा के पर्यटन फलक पर नई इबारत लिखने की चेष्टा होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
dhitendra.sharma@gmail.com

Editing
बहरहाल, सारा दारोमदार जिला प्रशासन पर है। अपेक्षा की जानी चाहिए कि नवाचार के लिए पहचाने जाने वाले व..

Monday, December 16, 2024

न्याय की चौखट!

 राजस्व न्यायालयों में लंबित मामलों के हालात को दर्पण दिखाती एक लघुकथा! एक और "सीता माता " के संघर्ष की कथा! 



प्रमुख राष्ट्रीय दैनिक राजस्थान पत्रिका के रविवारीय अंक दिनांक 15 दिसम्बर 2024 में प्रकाशित! 

(dhitendra.sharma@gmail.com) 

Friday, December 13, 2024

चुनावी राजनीति में विकास निचले पायदान पर क्यों

हमारे लोकतांत्रिक चरित्र की यही असल तस्वीर है। हमारा सामाजिक चरित्र मोटे तौर पर भावना-प्रधान है और समाज यह प्राथमिकता से चाहता है कि काम कोई करे न करे, हमारा प्रतिनिधि हमारे व्यक्तिगत-सामूहिक सुख-दुख में साथ खड़ा रहे। उसकी बात सुने। ऐसे में हमारे लोकतांत्रिक चरित्र में लोक-जुड़ाव सर्वोच्च प्राथमिकता पर आ गया और विकास बाद के पायदानों पर। अगर लोगों से जुड़ाव शासनिक जिम्मेदारियों के चलते कम हो गया तो जनआक्रोश राजनेता को जमीन पर उतारने को आतुर हो जाता है, सत्ता से हटा देता है। 

Tuesday, December 10, 2024

भारतीय राजनीति अब नई दिशा में, बॉसशिप के लिए कोई स्थान नहीं

उच्च पदों के रसूख और प्रोटोकॉल्स के भौंडे प्रदर्शन से, चाहे वह राजनीतिक हो या फिर कार्यपालक प्रशासनिक मशीनरी, हमारे मनोविज्ञान में अधिकारिता व अधीनस्थता (बॉसशिप और सबोर्डिनेटशिप) का भाव कूट-कूट कर भर गया है। संभवतया राजशाही युग में ऐसा नहीं था क्योंकि राजा के प्रति कृतज्ञता थी और दांडिक भय था। शासन के ब्रिटिश कार्यकाल में ऑफिस कल्चर विकसित हुई और अंग्रेज अधिकरियों को अधिक रुतबे से नवाजा गया। वहीं से यह कुरीति हमें विरासत में मिली। जबकि लोकतांत्रिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में बॉसशिप, सबोर्डिनेटशिप को निस्संदेह कोई स्थान नहीं होना चाहिए। सभी जनप्रतिनिधि हैं, कोई स्थाई कैडर अधिकारी नहीं है, और निििश्चत कार्यकाल के लिए जनता ने शासनिक व्यवस्था संचालन के लिए चुनकर भेजा है।
-धीतेन्द्र कुमार शर्मा- 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे और अपने गुजरात शासन के दौरान हिन्दू हृदय सम्राट की जन-उपाधि हासिल करने वाले नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश की राजनीति को बड़ी दृढ़ता से धर्म केन्द्रित बहुसंख्यकवाद की ओर मोड़ देने वाली भारतीय जनता पार्टी अब इसे सत्ता शक्ति में समानता की नई दिशा देने को प्रयासरत है। हाल के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद देवेन्द्र फणनवीस की मुख्यमंत्री पद पर अनाश्चर्यजनक ताजपोशी और एकनाथ शिंदे को डिप्टी सीएम पद की शपथ के लिए मनाकर पार्टी ने यह साफ और मजबूत संदेश देने का प्रयास किया है। चुनाव नतीजों के बाद 12 दिन चली मशक्कत के परिणाम यानी गुरुवार, 5 दिसंबर को हुए शपथ-ग्रहण पर सबकी नजर थी क्योंकि चौबीस घंटे पहले तक हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में शिंदे ने स्पष्ट स्वीकार नहीं किया था कि वे डिप्टी सीएम पद की शपथ लेने जा रहे हैं, वे अपने चिरपरिचित अंदाज में मुक्तकंठ खिलखिला जरूर रहे थे। शिंदे की फितरत और मराठा स्वाभिमान जैसे मनोविज्ञान के मद्देनजर राजनीतिक विश्लेषकों की उम्मीदें इस लिहाज से क्षीण थी। हां, वे अपने बेटे को राज्य की राजनीति में डिप्टी सीएम बनवाकर खुद केन्द्रीय केबिनेट का हिस्सा बन जाएं ऐसे मजबूत आकलन लगाए जा रहे थे। लेकिन भाजपा की मनौव्वल रंग लाई और शिंदे ने डिप्टी सीएम पद की शपथ ले ली। इसे राजनीति में स्थापित धारणा के अनुरूप भी मान सकते हैं कि संभव है यह स्क्रिप्ट भाजपा ने उसी दिन लिख ली हो जब ढाई साल पहले जून 2022 में एकनाथ शिंदे को सीएम पद देते हुए देवेन्द्र फणनवीस को डिप्टी सीएम पद के लिए राजी कर लिया था।

 भाजपा के लिए ऐसा प्रयोग नया नहीं था, और ना ही कांग्रेस के लिए। भारत के राजनीतिक इतिहास में इससे पहले भी ऐसे क्षण आए हैं। कुछ वर्ष पूर्व का ही उदाहरण बैबीरानी मौर्य हैं। वे अगस्त 2018 से सितंबर 2021 तक उत्तराखंड की राज्यपाल रही। राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर रहने के बाद उनसे कार्यकाल पूर्ण होने से पहले इस्तीफा लिया गया और उत्तरप्रदेश विधान सभा में विधायक का चुनाव लड़ाया गया। अब वे योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री हैं। अटल-आडवाणी युगीन भाजपा में भी ऐसे प्रयोग हुए। साल 2004 में मध्यप्रदेश की सीएम उमाभारती के नाम 1994 के हुबली दंगों के लिए अरेस्ट वारंट जारी होने पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया था, तब वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर को सीएम बनाया गया। वे 23अगस्त 2004 से 29 नवंबर 2005 तक मप्र के सीएम रहे। लेकिन फिर शिवराज सिंह चौहान के सीएम बनने पर बाबूलाल गौर उनके मंत्रिमंडल में मंत्री बने। कांग्रेस ने भी ऐसा प्रयोग पंजाब में किया था। तत्कालीन सीएम हरचरण सिंह बराड़ को हटाकर 21 नवंबर 1996 को तत्समय डिप्टी सीएम रही राजिन्दर कौर भट्टल को सीएम बनाया था। वे अल्प कार्यकाल 11 फरवरी 1997 तक सीएम रही। बाद में पुन: अमरिन्दर सिंह मंत्रिमंडल में मंत्री और डिप्टी सीएम रही। राज्यपाल रहने के बाद विधायकी का चुनाव लडऩे का उदाहरण राजस्थान से भी जुड़ा है। राजस्थान की राजनीति के कद्दावर कांग्रेसी नेता जगन्नाथ पहाडिय़ा दो बार सीएम रहने के बाद 3 मार्च 1989 से 2 फरवरी 1990 तक बिहार के राज्यपाल रहे लेकिन बाद में पुन: विधायक का चुनाव जीकर आए, हालांकि उन्हें कोई मंत्री पद नहीं मिला। 

दरअसल, उच्च पदों के रसूख और प्रोटोकॉल्स के भौंडे प्रदर्शन से, चाहे वह राजनीतिक हो या फिर कार्यपालक प्रशासनिक मशीनरी, हमारे मनोविज्ञान में अधिकारिता व अधीनस्थता (बॉसशिप और सबोर्डिनेटशिप) का भाव कूट-कूट कर भर गया है। संभवतया राजशाही युग में ऐसा नहीं था क्योंकि राजा के प्रति कृतज्ञता थी और दांडिक भय था। शासन के ब्रिटिश कार्यकाल में ऑफिस कल्चर विकसित हुई और अंग्रेज अधिकरियों को अधिक रुतबे से नवाजा गया। वहीं से यह कुरीति हमें विरासत में मिली। कार्यपालक प्रशासनिक ढांचे में इसके महत्व पर लेखक प्रश्न चिह्न नहीं लगाना चाहता क्योंकि इसके अभाव में व्यवस्थागत कई मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं इसे प्रबंधकीय भाषा में ऑर्गेनाजेशनल डिफेक्ट भी कह सकते हैं, लेकिन लोकतांत्रिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में बॉसशिप, सबोर्डिनेटशिप को निस्संदेह कोई स्थान नहीं होना चाहिए। सभी जनप्रतिनिधि हैं, कोई स्थाई कैडर अधिकारी नहीं है, और निििश्चत कार्यकाल के लिए जनता ने शासनिक व्यवस्था संचालन के लिए चुनकर भेजा है।

 हमारे संविधान के प्रावधान भी समानता की ही रेखा अंकित करते हैं। अनुच्छेद 74 (केन्द्र के बारे में) और अनु. 164 (राज्य) क्रमश: राष्ट्रपति और राज्य की सलाह के लिए मंत्रिपरिषद होने की बात कहते हैं। सांविधानिक प्रावधानों में मंत्रिपरिषद के लोकसभा और राज्य विधानसभा के प्रति सामूहिक उत्तरदायित्व की बात कहते हैं। जाहिर है, संविधान ने संपूर्ण मंत्रिपरिषद को एक जाजम पर रखा है। सिर्फ बहुमत दल के नेता को सीएम, पीएम नियुक्त करने और उसकी सलाह से मंत्रिपरिषद के गठन की व्यवस्थागत बात कही गई है। आजादी के बाद के वर्षों में बढ़ती सत्ता लोलुपता और रुतबे की महत्वाकांक्षी चेष्टाओं में बॉसशिप लेने और उसके न रहने पर बगावत जैसी परंपराएं स्थापित हो गई। इससे राजनीतिक दल सांगठनिक रूप से कमजोर होते चले गए और जिताऊ राजनीति के आगे घुटने टेकने लगे थे। बहरहाल, मोदी मैजिक के बूते मजबूत चुनावी जनसमर्थन के चलते आत्मविश्वास से लबरेज अपने जीवनकाल की अब तक की सबसे दृढ़संकल्पित भाजपा भारतीय राजनीति को बॉसशिप अवधारणा से निकाल नई दिशा देने का जीवट प्रयास कर रही है तो बधाई तो बनती ही है!
  (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
dhitendra.sharma@gmail.com

Tuesday, January 3, 2023

खुल्ला बोल: ब्राह्मण की पहचान फरसा या वेद!

संदर्भ- सामाजिक आयोजनों का संदेश क्या?

-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-

इस आलेख पर आगे बढऩे से पहले मैं विप्र समुदाय से क्षमा प्रार्थना करते हुए (क्योंकि संभव है ज्यादातर मेरे इस विचार से असहमति रखते हों)  स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि अपने विचार प्रकटीकरण के दौरान मेरी मंशा ना तो व्यापक सामुदायिक विश्वास को चोट पहुंचाने की है और ना ही समाज का बौद्धिक-रणनीतिक ठेकेदार होने का दावा प्रस्तुत करने की! यह सिर्फ समाचार-पत्रों में 2 जनवरी 2023 प्रकाशित एक समाचार पढऩे और उस दौरान मन में उठे विचारों का प्रकटीकरण मात्र है। इस विचार से कि शायद यह चिंतनधारा व्यापक बहस का हिस्सा बन कोई मंथन सत्व प्रदान कर दे।


समाचार यह कि, कोटा में ब्राह्मणों के कल्याण को समर्पित स्वनामधन्य एक सामाजिक संगठन के स्थापना दिवस आयोजन में एक जनवरी को 701 विप्र बंधुओं ने फरसा यानी शस्त्र पूजन किया। गौरव के साथ विप्र प्राधान्य समाचार-पत्रों में इसे बड़ा स्थान भी मिला। आयोजन में सर्वसमाज कल्याणकारी कार्य रक्तदान भी हुआ लेकिन हैडलाइन शस्त्र-शक्ति संदेशवाही इवेंट फरसा पूजन ही बना। कोटा दक्षिण के विप्र विधायक संदीप शर्मा ने तो फरसा पूजन को ब्राह्मणों की परंपरा करार दिया। आयोजन में राजस्थान विप्र कल्याण बोर्ड अध्यक्ष महेश शर्मा भी मौजूद थे। बेशक सामाजिक आयोजनों से बंधुता में बढ़ोतरी है। एकता का भाव जगता है, मेल मिलाप बढ़ता है लेकिन इनकी सर्वाधिक सार्थकता सामाजिक शिक्षा और संदेश में निहित है जिससे समाज का व्यापक स्तर पर भला हो।


हम अपनी थाती पर नजरें दौड़ाएं या प्राचीन भारतीय समाज व्यवस्था को देखें तो ब्राह्मण की भूमिका समाज व राजव्यवस्था का मार्गदर्शन करने की ही रही है। शस्त्र क्षत्रिय अथवा मार्शल कौम की पहचान रही है और वेद-उपनिषद-ब्राह्मण आदि शास्त्र ब्राह्मणों की। ब्राह्मण को भारतीय समाज शिक्षक की भूमिका में देखता आया है, गुरुदेव -गुरुमहाराज की पदवी देता आया है। शस्त्र पूजक से भी उच्च स्थान इस शास्त्र पूजक विप्र वर्ग का रहा है। निसंदेह अत्याचार की अनुभूति होने पर विष्णु भगवान परशुराम अवतारी बने और फरसे को प्रतीक बनाया। लेकिन यह सिर्फ एक कालखंड मात्र रहा। विराट और ब्रह्माण्ड तुल्य महिमा में यह अति संक्षिप्त है, और वो भी तत्कालीन हालात के वशीभूत होकर ना कि सर्वकालिक। ब्राह्मण की सर्वकालिक पहचान तो वेद शास्त्र ही हैं। सोचिये ना! महर्षि वेद व्यास, विश्वामित्र, गौतम ऋषि....! क्या ये हमारे गौरव नहीं! 


तल्खी और सामुदायिक टकराव के दौर में तो ब्राह्मण समुदाय का दायित्व और बढ़ जाता है। हम समाज के बौद्धिक-नेतृत्वकर्ता, मार्गदर्शक रहे हैं। क्रोध और तल्ख, आक्रामक शस्त्र-शक्ति लेपित छवि हमारा और नए बच्चों आधार क्यों बनें? क्यों न हम समाज को नई दिशा देने वाले, गुरु महाराज की पदवी की ओर बढऩे को अपनी नई पीढ़ी को प्रेरित करें। और, खास बात जिसने यह सब सोचने को मजबूर किया वो यह कि जहां यह आयोजन हुआ वह चंबल तट पर स्थित पुनीत गोदावरी धाम तो वेद शिक्षा की भूमि है। वेद विद्यालय का संचालन वहां होता है। क्या ही सुन्दर दृश्य होता जब बटुक वेद पूजन करते। शास्त्रोक्त लहरें दूर तक विप्र समाज का संदेश पहुंचाती! 


जरा सोचिये! फरसा पूजन में विप्र बच्चों और बंधुओं का अधिक कल्याण है या शास्त्र पूजन में! चतुर्वेद आदि शास्त्र से ब्राह्मण समाज और उसकी नई पीढ़ी का अधिक कल्याण है या फरसा से! मेरी नजर में तो उत्तर वेद शिक्षा और पूजन हैं, आपका दृष्टिकोण समाज के कर्ताधर्ता बने पदाधिकरियों तक 

जरूर पहुंचाइये!

dhitendra.sharma@gmail.com

आस्था और व्यवस्था में संतुलन जरूरी

यहां पर्वों के उत्साहपूर्ण आयोजनों को संकुचित करने अथवा बांधने का सुझाव देने की मंशा कतई नहीं है। ना ही आम रास्तों के अवरुद्ध होने से जूझती ...