Monday, December 16, 2024

न्याय की चौखट!

 राजस्व न्यायालयों में लंबित मामलों के हालात को दर्पण दिखाती एक लघुकथा! एक और "सीता माता " के संघर्ष की कथा! 



प्रमुख राष्ट्रीय दैनिक राजस्थान पत्रिका के रविवारीय अंक दिनांक 15 दिसम्बर 2024 में प्रकाशित! 

(dhitendra.sharma@gmail.com) 

Friday, December 13, 2024

चुनावी राजनीति में विकास निचले पायदान पर क्यों

हमारे लोकतांत्रिक चरित्र की यही असल तस्वीर है। हमारा सामाजिक चरित्र मोटे तौर पर भावना-प्रधान है और समाज यह प्राथमिकता से चाहता है कि काम कोई करे न करे, हमारा प्रतिनिधि हमारे व्यक्तिगत-सामूहिक सुख-दुख में साथ खड़ा रहे। उसकी बात सुने। ऐसे में हमारे लोकतांत्रिक चरित्र में लोक-जुड़ाव सर्वोच्च प्राथमिकता पर आ गया और विकास बाद के पायदानों पर। अगर लोगों से जुड़ाव शासनिक जिम्मेदारियों के चलते कम हो गया तो जनआक्रोश राजनेता को जमीन पर उतारने को आतुर हो जाता है, सत्ता से हटा देता है। 

Tuesday, December 10, 2024

भारतीय राजनीति अब नई दिशा में, बॉसशिप के लिए कोई स्थान नहीं

उच्च पदों के रसूख और प्रोटोकॉल्स के भौंडे प्रदर्शन से, चाहे वह राजनीतिक हो या फिर कार्यपालक प्रशासनिक मशीनरी, हमारे मनोविज्ञान में अधिकारिता व अधीनस्थता (बॉसशिप और सबोर्डिनेटशिप) का भाव कूट-कूट कर भर गया है। संभवतया राजशाही युग में ऐसा नहीं था क्योंकि राजा के प्रति कृतज्ञता थी और दांडिक भय था। शासन के ब्रिटिश कार्यकाल में ऑफिस कल्चर विकसित हुई और अंग्रेज अधिकरियों को अधिक रुतबे से नवाजा गया। वहीं से यह कुरीति हमें विरासत में मिली। जबकि लोकतांत्रिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में बॉसशिप, सबोर्डिनेटशिप को निस्संदेह कोई स्थान नहीं होना चाहिए। सभी जनप्रतिनिधि हैं, कोई स्थाई कैडर अधिकारी नहीं है, और निििश्चत कार्यकाल के लिए जनता ने शासनिक व्यवस्था संचालन के लिए चुनकर भेजा है।
-धीतेन्द्र कुमार शर्मा- 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे और अपने गुजरात शासन के दौरान हिन्दू हृदय सम्राट की जन-उपाधि हासिल करने वाले नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश की राजनीति को बड़ी दृढ़ता से धर्म केन्द्रित बहुसंख्यकवाद की ओर मोड़ देने वाली भारतीय जनता पार्टी अब इसे सत्ता शक्ति में समानता की नई दिशा देने को प्रयासरत है। हाल के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद देवेन्द्र फणनवीस की मुख्यमंत्री पद पर अनाश्चर्यजनक ताजपोशी और एकनाथ शिंदे को डिप्टी सीएम पद की शपथ के लिए मनाकर पार्टी ने यह साफ और मजबूत संदेश देने का प्रयास किया है। चुनाव नतीजों के बाद 12 दिन चली मशक्कत के परिणाम यानी गुरुवार, 5 दिसंबर को हुए शपथ-ग्रहण पर सबकी नजर थी क्योंकि चौबीस घंटे पहले तक हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में शिंदे ने स्पष्ट स्वीकार नहीं किया था कि वे डिप्टी सीएम पद की शपथ लेने जा रहे हैं, वे अपने चिरपरिचित अंदाज में मुक्तकंठ खिलखिला जरूर रहे थे। शिंदे की फितरत और मराठा स्वाभिमान जैसे मनोविज्ञान के मद्देनजर राजनीतिक विश्लेषकों की उम्मीदें इस लिहाज से क्षीण थी। हां, वे अपने बेटे को राज्य की राजनीति में डिप्टी सीएम बनवाकर खुद केन्द्रीय केबिनेट का हिस्सा बन जाएं ऐसे मजबूत आकलन लगाए जा रहे थे। लेकिन भाजपा की मनौव्वल रंग लाई और शिंदे ने डिप्टी सीएम पद की शपथ ले ली। इसे राजनीति में स्थापित धारणा के अनुरूप भी मान सकते हैं कि संभव है यह स्क्रिप्ट भाजपा ने उसी दिन लिख ली हो जब ढाई साल पहले जून 2022 में एकनाथ शिंदे को सीएम पद देते हुए देवेन्द्र फणनवीस को डिप्टी सीएम पद के लिए राजी कर लिया था।

 भाजपा के लिए ऐसा प्रयोग नया नहीं था, और ना ही कांग्रेस के लिए। भारत के राजनीतिक इतिहास में इससे पहले भी ऐसे क्षण आए हैं। कुछ वर्ष पूर्व का ही उदाहरण बैबीरानी मौर्य हैं। वे अगस्त 2018 से सितंबर 2021 तक उत्तराखंड की राज्यपाल रही। राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर रहने के बाद उनसे कार्यकाल पूर्ण होने से पहले इस्तीफा लिया गया और उत्तरप्रदेश विधान सभा में विधायक का चुनाव लड़ाया गया। अब वे योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री हैं। अटल-आडवाणी युगीन भाजपा में भी ऐसे प्रयोग हुए। साल 2004 में मध्यप्रदेश की सीएम उमाभारती के नाम 1994 के हुबली दंगों के लिए अरेस्ट वारंट जारी होने पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया था, तब वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर को सीएम बनाया गया। वे 23अगस्त 2004 से 29 नवंबर 2005 तक मप्र के सीएम रहे। लेकिन फिर शिवराज सिंह चौहान के सीएम बनने पर बाबूलाल गौर उनके मंत्रिमंडल में मंत्री बने। कांग्रेस ने भी ऐसा प्रयोग पंजाब में किया था। तत्कालीन सीएम हरचरण सिंह बराड़ को हटाकर 21 नवंबर 1996 को तत्समय डिप्टी सीएम रही राजिन्दर कौर भट्टल को सीएम बनाया था। वे अल्प कार्यकाल 11 फरवरी 1997 तक सीएम रही। बाद में पुन: अमरिन्दर सिंह मंत्रिमंडल में मंत्री और डिप्टी सीएम रही। राज्यपाल रहने के बाद विधायकी का चुनाव लडऩे का उदाहरण राजस्थान से भी जुड़ा है। राजस्थान की राजनीति के कद्दावर कांग्रेसी नेता जगन्नाथ पहाडिय़ा दो बार सीएम रहने के बाद 3 मार्च 1989 से 2 फरवरी 1990 तक बिहार के राज्यपाल रहे लेकिन बाद में पुन: विधायक का चुनाव जीकर आए, हालांकि उन्हें कोई मंत्री पद नहीं मिला। 

दरअसल, उच्च पदों के रसूख और प्रोटोकॉल्स के भौंडे प्रदर्शन से, चाहे वह राजनीतिक हो या फिर कार्यपालक प्रशासनिक मशीनरी, हमारे मनोविज्ञान में अधिकारिता व अधीनस्थता (बॉसशिप और सबोर्डिनेटशिप) का भाव कूट-कूट कर भर गया है। संभवतया राजशाही युग में ऐसा नहीं था क्योंकि राजा के प्रति कृतज्ञता थी और दांडिक भय था। शासन के ब्रिटिश कार्यकाल में ऑफिस कल्चर विकसित हुई और अंग्रेज अधिकरियों को अधिक रुतबे से नवाजा गया। वहीं से यह कुरीति हमें विरासत में मिली। कार्यपालक प्रशासनिक ढांचे में इसके महत्व पर लेखक प्रश्न चिह्न नहीं लगाना चाहता क्योंकि इसके अभाव में व्यवस्थागत कई मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं इसे प्रबंधकीय भाषा में ऑर्गेनाजेशनल डिफेक्ट भी कह सकते हैं, लेकिन लोकतांत्रिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में बॉसशिप, सबोर्डिनेटशिप को निस्संदेह कोई स्थान नहीं होना चाहिए। सभी जनप्रतिनिधि हैं, कोई स्थाई कैडर अधिकारी नहीं है, और निििश्चत कार्यकाल के लिए जनता ने शासनिक व्यवस्था संचालन के लिए चुनकर भेजा है।

 हमारे संविधान के प्रावधान भी समानता की ही रेखा अंकित करते हैं। अनुच्छेद 74 (केन्द्र के बारे में) और अनु. 164 (राज्य) क्रमश: राष्ट्रपति और राज्य की सलाह के लिए मंत्रिपरिषद होने की बात कहते हैं। सांविधानिक प्रावधानों में मंत्रिपरिषद के लोकसभा और राज्य विधानसभा के प्रति सामूहिक उत्तरदायित्व की बात कहते हैं। जाहिर है, संविधान ने संपूर्ण मंत्रिपरिषद को एक जाजम पर रखा है। सिर्फ बहुमत दल के नेता को सीएम, पीएम नियुक्त करने और उसकी सलाह से मंत्रिपरिषद के गठन की व्यवस्थागत बात कही गई है। आजादी के बाद के वर्षों में बढ़ती सत्ता लोलुपता और रुतबे की महत्वाकांक्षी चेष्टाओं में बॉसशिप लेने और उसके न रहने पर बगावत जैसी परंपराएं स्थापित हो गई। इससे राजनीतिक दल सांगठनिक रूप से कमजोर होते चले गए और जिताऊ राजनीति के आगे घुटने टेकने लगे थे। बहरहाल, मोदी मैजिक के बूते मजबूत चुनावी जनसमर्थन के चलते आत्मविश्वास से लबरेज अपने जीवनकाल की अब तक की सबसे दृढ़संकल्पित भाजपा भारतीय राजनीति को बॉसशिप अवधारणा से निकाल नई दिशा देने का जीवट प्रयास कर रही है तो बधाई तो बनती ही है!
  (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
dhitendra.sharma@gmail.com

Tuesday, January 3, 2023

खुल्ला बोल: ब्राह्मण की पहचान फरसा या वेद!

संदर्भ- सामाजिक आयोजनों का संदेश क्या?

-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-

इस आलेख पर आगे बढऩे से पहले मैं विप्र समुदाय से क्षमा प्रार्थना करते हुए (क्योंकि संभव है ज्यादातर मेरे इस विचार से असहमति रखते हों)  स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि अपने विचार प्रकटीकरण के दौरान मेरी मंशा ना तो व्यापक सामुदायिक विश्वास को चोट पहुंचाने की है और ना ही समाज का बौद्धिक-रणनीतिक ठेकेदार होने का दावा प्रस्तुत करने की! यह सिर्फ समाचार-पत्रों में 2 जनवरी 2023 प्रकाशित एक समाचार पढऩे और उस दौरान मन में उठे विचारों का प्रकटीकरण मात्र है। इस विचार से कि शायद यह चिंतनधारा व्यापक बहस का हिस्सा बन कोई मंथन सत्व प्रदान कर दे।


समाचार यह कि, कोटा में ब्राह्मणों के कल्याण को समर्पित स्वनामधन्य एक सामाजिक संगठन के स्थापना दिवस आयोजन में एक जनवरी को 701 विप्र बंधुओं ने फरसा यानी शस्त्र पूजन किया। गौरव के साथ विप्र प्राधान्य समाचार-पत्रों में इसे बड़ा स्थान भी मिला। आयोजन में सर्वसमाज कल्याणकारी कार्य रक्तदान भी हुआ लेकिन हैडलाइन शस्त्र-शक्ति संदेशवाही इवेंट फरसा पूजन ही बना। कोटा दक्षिण के विप्र विधायक संदीप शर्मा ने तो फरसा पूजन को ब्राह्मणों की परंपरा करार दिया। आयोजन में राजस्थान विप्र कल्याण बोर्ड अध्यक्ष महेश शर्मा भी मौजूद थे। बेशक सामाजिक आयोजनों से बंधुता में बढ़ोतरी है। एकता का भाव जगता है, मेल मिलाप बढ़ता है लेकिन इनकी सर्वाधिक सार्थकता सामाजिक शिक्षा और संदेश में निहित है जिससे समाज का व्यापक स्तर पर भला हो।


हम अपनी थाती पर नजरें दौड़ाएं या प्राचीन भारतीय समाज व्यवस्था को देखें तो ब्राह्मण की भूमिका समाज व राजव्यवस्था का मार्गदर्शन करने की ही रही है। शस्त्र क्षत्रिय अथवा मार्शल कौम की पहचान रही है और वेद-उपनिषद-ब्राह्मण आदि शास्त्र ब्राह्मणों की। ब्राह्मण को भारतीय समाज शिक्षक की भूमिका में देखता आया है, गुरुदेव -गुरुमहाराज की पदवी देता आया है। शस्त्र पूजक से भी उच्च स्थान इस शास्त्र पूजक विप्र वर्ग का रहा है। निसंदेह अत्याचार की अनुभूति होने पर विष्णु भगवान परशुराम अवतारी बने और फरसे को प्रतीक बनाया। लेकिन यह सिर्फ एक कालखंड मात्र रहा। विराट और ब्रह्माण्ड तुल्य महिमा में यह अति संक्षिप्त है, और वो भी तत्कालीन हालात के वशीभूत होकर ना कि सर्वकालिक। ब्राह्मण की सर्वकालिक पहचान तो वेद शास्त्र ही हैं। सोचिये ना! महर्षि वेद व्यास, विश्वामित्र, गौतम ऋषि....! क्या ये हमारे गौरव नहीं! 


तल्खी और सामुदायिक टकराव के दौर में तो ब्राह्मण समुदाय का दायित्व और बढ़ जाता है। हम समाज के बौद्धिक-नेतृत्वकर्ता, मार्गदर्शक रहे हैं। क्रोध और तल्ख, आक्रामक शस्त्र-शक्ति लेपित छवि हमारा और नए बच्चों आधार क्यों बनें? क्यों न हम समाज को नई दिशा देने वाले, गुरु महाराज की पदवी की ओर बढऩे को अपनी नई पीढ़ी को प्रेरित करें। और, खास बात जिसने यह सब सोचने को मजबूर किया वो यह कि जहां यह आयोजन हुआ वह चंबल तट पर स्थित पुनीत गोदावरी धाम तो वेद शिक्षा की भूमि है। वेद विद्यालय का संचालन वहां होता है। क्या ही सुन्दर दृश्य होता जब बटुक वेद पूजन करते। शास्त्रोक्त लहरें दूर तक विप्र समाज का संदेश पहुंचाती! 


जरा सोचिये! फरसा पूजन में विप्र बच्चों और बंधुओं का अधिक कल्याण है या शास्त्र पूजन में! चतुर्वेद आदि शास्त्र से ब्राह्मण समाज और उसकी नई पीढ़ी का अधिक कल्याण है या फरसा से! मेरी नजर में तो उत्तर वेद शिक्षा और पूजन हैं, आपका दृष्टिकोण समाज के कर्ताधर्ता बने पदाधिकरियों तक 

जरूर पहुंचाइये!

dhitendra.sharma@gmail.com

Monday, February 24, 2020

#Journalism: डीजे संगीत और मीडिया की आजादी



-धीतेन्द्र कुमार शर्मा -
गुजरी शनिवार रात राजस्थान के एक प्रतिष्ठित मीडिया समूह के स्वामित्व वाले जयपुर स्थित परिसर में #राजस्थानपुलिस ने 10 बजे बाद डीजे संगीत बजने की बात पर कार्रवाई कर दी। सिविल लाइंस स्थित इस परिसर में बकौल मीडिया समूह(जैसा उन्होंने बहादुरी से खुद के समाचार पत्र में प्रकाशित भी किया) बैंक मालिक के अतिथि व परिजन जन्मदिन पार्टी मना रहे थे। पुलिस  पर कमरों तक अवांछित दखल और अभद्रता का आरोप है, साथ ही #मीडिया_की_आजादी पर हमला भी बताया गया। खबर के समर्थन में लिखे गए तर्कों में यह भी शुमार किया गया कि क्षेत्र में अन्य मैरिज गार्डन भी हैं जिनमें देर रात तक डीजे बजता है लेकिन कार्रवाई नहीं होती। आरोप लगाया गया कि मीडिया समूह की खबरों पर प्रतिक्रिया स्वरूप राज्य सरकार की शह पर यह कार्रवाई की गई।
 इस प्रतिष्ठित मीडिया समूह के कानून और सिद्धांत से जुड़े तीन किस्से मुझसे भी प्रत्यक्ष जड़े हैं। वर्ष 2007-08 की बात रही होगी। मैं इसके भरतपुर ब्यूरो प्रमुख का दायित्व निभा रहा था। इसी दौरान वहां ट्रेड फेयर लगा। मेला चल रहा था कि दो-तीन दिन बाद बिजली विजिलेंस से जुड़े अधिकारी पहुंच गए। वहां ठेकेदार बिजली चोरी करते पाया गया। तत्समय समूह की प्रतिष्ठा धवल और छवि अकाट्य थी। विद्युत जेईएन का मेरे पास तुरंत फोन आया। मैंने उच्च स्तर पर अवगत कराया। वहां से बिना समय गंवाए निर्देश मिले कि चालान कटवाया जाए, साथ ही ठेकेदार को भी हिदायत मिली कि हमारे साथ एसोएिशन में कानून की पालना तो करनी ही होगी।

दूसरा उदाहरण राजस्थान के ही पाली शहर का है। तत्समय पत्रकारिता के प्रतिमानों और सिद्धांतों के कठोर संरक्षण के चलते मुझे भरतपुर से 2010 में पाली स्थानीय संपादक बना दिया गया। वहां फिर ट्रेड फेयर लगा। एक दिन अचानक सिविल पोषाक में तत्कालीन पुलिस अधीक्षक मेले में पहुंच गए। झूले वाले से लाइसेंस/अनुमति की पड़ताल भी कर ली। लाइसेंस अनुमति न होने की बात सामने आने पर उन्होंने इसे बंद करा दिया। साथ ही मुझे संदेश भिजवाया और विनम्रता से अगले दिन प्रक्रिया पूरी कर झूला चलवाने को कहा। मैंने जयपुर उच्चधिकरियों को अवगत कराया। उन्होंने स्पष्टत: कानून का पालन करने की हिदायत मेला ठेकेदार को दिलवा दी। लाइसेंस प्रक्रिया में प्रशासन का सहयोग भी मिला।

और तीसरा रोचक किस्सा ट्रेनी काल का वर्ष 1999 का है। हमारा एक बैच मैट अजमेरी गेट पर रोड रैलिंग अवैध तरीके से पार करता हमारे तत्कालीन संपादकीय अधिकारी ने देख लिया। उन्होंने समूह की प्रतिष्ठा पर ही उस दिन की पूरी क्लास ली। साथ ही उस प्रशिक्षु को निकालने की तल्ख चेतावनी भी दे दी। संदेश स्ष्ट था कि कानून के उल्लंघन की अंगुली हमारी ओर नहीं उठनी चाहिए। यह साख का सवाल है, यही हमारी पूंजी है।

बस गुजरे वर्षों में मीडिया जगत की गंगा से इतना ही पानी उतरा है। तब कानून सर्वोच्च था, अब अन्य किसी के उल्लंघन की आड़ स्वयं के भी उल्लंघन के लिए तर्क का आधार मानी जा रही। यही नहीं, तब कोई समाचार नहीं छपा, सब कुछ कुशलमंगल रहा। प्रशासन में प्रतिष्ठा और बढ़ी।

कानून से ऊपर  आजादी क्यों? 

बात मीडिया की आजादी की है। तो कानून से ऊपर किसे आजादी मिलनी चाहिए और क्यों? मीडिया तो समाज का पथ प्रदर्शक है, स्वयं आचरण पेश कर अन्य पर कार्रवाई के लिए प्रशासन को मजबूर करे। रात 10 बजे बाद डीजे बंद होना है तो बंद होना ही चाहिए। मेरे प्रभावी सेवाकाल के दौरान परिवार के तीन विवाह समारोहों में हमने 10 बजे बाद डीजे बंद करा दिया।

एक और बात, मीडिया समूह के व्यापारिक दृष्टिकोण में डीजे संगीत की आवश्यकता कहां है, इस पर एडिटर्स गिल्ड, पत्रकारिता से जुड़े संगठनों, प्रेस काउंसिल और सरकार को भी  मंथन करना चाहिए। कुछ वर्ष पहले एक इलेक्ट्रोनिक चैनल पर भी वित्तीय अनियमितता पर कार्रवाई को मीडिया पर हमला बताया गया। हालांकि, जनता ने उसे किस पायदान पर खड़ा कर दिया, और आज सबसे तेज कौन है, यह सबके सामने है। कुछ माह पहले एक और चैनल के मालिक पर कार्रवाई हुई, वहां भी वित्तीय अनियमितता का मसला था।

 चौतरफा शुचिता की जरूरत 

असल में, अब वक्त है उस आंदोलन को गति देने की जिसका आगाज अन्ना हजारे ने आजादी की दूसरी लड़ाई के संबोधन के साथ यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में किया था। जिसकी उपज अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी है। अब चौतरफा शुचिता की जरूरत है। किसी को भी दग्ध धवल मानने की आवश्यकता नहीं। स्वच्छता की अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण होना सबके लिए अनिवार्य हो। भले ही मीडिया ही क्यों न हो। संविधान और कानून हम सबने स्वीकार किया है, #'हम_भारत_के_लोग' में मीडिया भी शामिल है। कुछ आचार संहिता तो अवश्य बने। मीडिया से इतर अन्य व्यापार-व्यवसाय में मीडिया का इस्तेमाल करने की लक्ष्मण रेखा भी तय हो ही।

 हां, पुलिस के द्वारा अभद्रता करने वाले आरोपों की जांच जरूर निष्पक्ष होनी ही चाहिए, पुलिस को यदि कोई डीजे के अतिरिक्त भी अन्य इनपुट था जिसके आधार पर तलाशी ली गई तो इसका खुलासा जनता के बीच सार्वजनिक करना चाहिए अन्यथा बेजा दखलंदाजी पर महकमा बिना शर्त माफी मांगे। फिर वही बात दोहरानी होगी, कानून सबके लिए समान है, पुलिस के लिए भी और मीडिया के लिए भी।
जय हिन्द।

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Thursday, January 16, 2020

श्रद्धांजलि: कुलिशजी असहमति की स्वीकार्यता के पुरोधा, नेता-पत्रकार सीखें


संदर्भ- 17 जनवरी: पुण्यतिथि पर स्मरण

-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-
यह बात वर्ष 2000-2002 की थी। करीब पौने दो साल मेरा वास्ता प्रत्यक्ष रूप में केसरगढ़ के पांच नंबर कमरे से रहा। संभवत: पत्रकारिता के दर्शन के वे स्वर्णिम क्षण थे।  इससे पहले 20 अगस्त 1999 से कर्म स्थली के रूप में केसरगढ़ की दहलीज को नमन कर राजस्थान पत्रिका परिवार के सदस्य बनने पर प्रशिक्षु पत्रकार के नाते हमारा वास्ता बाबू साहब (कुलिशजी)से इतना ही था कि वे इस संस्थान के मालिक हैं। दूर से ही दर्शन होते। पास जाने से हम बचते भी थे। वरिष्ठजनों के बताए संस्मरणों से उनके बारे जो कुछ पता चलता और  22-23 वर्षीय नवयुवक के मन में प्राय: जितना ठहर पाता है, उतना ही मेरे मन में ठहरता था। 'अटूट परिवार' के संस्कारों के बावजूद तत्समय 'नौकरी भाव' की आहट अन्यान्य (पुराने नहीं) कर्मचारियों के संवाद से महसूस होने लगी थी। हमें भी अपने कॅरियर की चिंता तो रहती ही थी। खैर, सारी उधेड़बुन और 'स्वर्ण घिसाई' में कब सुबह के नौ बजे से (इसी समय तत्समय प्रशिक्षुओं की क्लास लगती थी।) रात के एक या दो बज जाते, पता ही नहीं चलता था। न थकान, न शिकन। सभी वरिष्ठों का स्नेह लघुभ्रात तुल्य। सुबह शाम खाने की पूछना शायद ही कोई भूलता। यह सब देख हम संस्थापक विभूति को समझने की कोशिश करते थे। पुस्तकालय में अधिकाधिक समय गुजारना तब अनुशासनिक अनिवार्यता थी। कड़ाई से इस नियम की पालना भी होती। वरिष्ठजन कहते, लाइब्रेरी में पढऩा भी ड्यूटी ही है मेरे भाई। देशभर के समाचार-पत्रों पर नजर मारने के बाद बचे समय में पुस्तकें वहीं मिल जाती। लिहाजा, धारा प्रवाह केसरगढ़ की लाइब्रेरी में कई मर्तबा पढ़ी। जितना उससे समझ पाए उतना आत्मसात किया।

     करीब एक वर्ष बाद प्रशिक्षुकाल में ही मेरी ड्यूटी संपादकीय पृष्ठ पर लगा दी गई। यूं ही अचानक। हम रोज की तरह सुबह की कक्षा और दोपहर के भोजन के बाद (तारीख ध्यान नहीं) केसरगढ़ पहुंचे थे, पांच नंबर कमरे के पास के दरवाजे से ही गार्ड एंट्री करते थे। अचानक कोचर साहब(मोतीचंदजी कोचर, तत्कालीन संपादक) ने आवाज लगाई, "ऐ ऐ...(इशारे से) इधर आना।" मैं तब पहली बार पांच नंबर में गया। यूं भी इस कमरे का बुलावा आने का सीधा मतलब होता था कि 'क्लास' लगने वाली है। उन्होंने स्वभावगत दो टूक पूछा, "ट्रांसलेशन तुम ही करते हो ना बलराज मेहता की।" " हां सर," मैंने जवाब दिया। "आपका ट्रांसफर कर दिया है मैंने, कल से यहां 10 बजे आ जाना। पाटनीजी मिलेंगे। एडिट पेज पर काम करना है। कोई दिक्कत?" मैंने कहा, "जी नहीं।"

     बस इसी दिन से श्रद्धेय प्रणय रंजन तिवारीजी और ज्ञानचंदजी पाटनी का सानिध्य शुरू हुआ, बाद में करीब सवा वर्ष श्रद्धेय स्व. शाहिद मिर्जा साहब का सानिध्य यहीं मिला। अंग्रेज़ी से हिंदी में भाषानुवाद और भावानुवाद की सीख इन दोनों महानुभावों तिवारीजी और मिर्जा सा. से मिली। और, इस सबसे बड़ी बात कि इन पौने दो साल में वो अनुपम संवाद सुने जिन्होंने जीवन की दिशा और दृढ़ता तय कर दी। वे सारी शंकाएं काफूर हो गईं जो तत्समय दस्तक देने लगी थी। कई विभूतियों के संवाद का समय लगभग तय रहता था। सुबह कोचर साहब का ठीक 10 बजे आना। फिर 12 बजे बड़े भाईसा (गुलाबजी कोठारीसा.) का उनसे संवाद। उसके बाद मिलाप भाई सा.,  डॉ. गौरी शंकर जी, विजय भंडारी साहब, आदि की गूढ़ चर्चाओं का श्रवण मटकी को तराशता गया।

      शाम को ठीक 4 बजे के आसपास बाबूसाहब(संस्थापक श्रद्घेय कुलिशजी) का आना होता था।  आते ही गूढ़ वेद-विज्ञान की चर्चाएं शुरू हो जाती थी। साथ में पोळमपोळ का लेखन भी नियमित। मैं यह सब सुनता-देखता रहता था। चार पंक्तियों की 'पोळमपोळ' बाबू साहब खुद 'भायाजी' के नाम से लिखते। व्यवस्था यह थी कि बाबू साहब चिंतन के साथ लिखते, टाइप होने ऊपर लाइनों सेक्शन में जाता, लौट के कोचर साहब के पास आता। बाबू साहब उनकी ओर देखते, इस बीच लेखन भी शुरू रहता था। कोचर साहब के इशारे और मनोभाव मात्र पढ़कर (जैसा में समझ पाया) बाबूसाहब कुलिशजी पुन: लेखन कर्म जारी रखते थे। चिंतन-लेखन में ऐसा बहुत ही कम हुआ कि एक-दो ही 'पोळमपोल' लिखी गई हो। आधा दर्जन से अधिक ये लिखी जाती थी। जब कोचर साहब इसे 'ओके' कर देते, तब क्रम थमता। सभी उच्चकोटि की होने के बावजूद अंतिम प्रकाशन उसी का होता जिस पर कोचर साहब मुहर लगाते। शेष लेखन रिकॉर्ड में लाइब्रेरी में चला जाता। कोचर साहब पीयूष जी जैन साहब (तब के सेंट्रल डेस्क इंचार्ज, जिनकी हैसियत सभी स्थानीय संपादकों से ज्यादा थी) को फाइनल पर्ची पकड़ा देते। तब तक पौने छह या छह बज चुके होते थे। बस यही समय उन दोनों का केसरगढ़ से साथ-साथ निकलने का वक्त होता था। मैं अचंभित रहता था कि मालिक के लिखे हुए को संपादक की सहमति न मिलने पर मालिक लगातार लेखन क्रम जारी रखे हुए है। #असहमति_की_स्वीकार्यता का अद्भुत दर्शन। संपादक का भी साहस कि अपना निर्भीक स्वतंत्र मत रखते।  खुद एक वरिष्ठ साथी ने मुझे बताया कि एक बार संपादकीय पेज पर जाने वाला बाबू साहब का लिखा एक लीड आर्टिकल उन्हें थोड़ा खटका तो उन्होंने अपनी बात कही, बाबू साहब ने सहर्ष उसे रुकवा दिया।
पौने दो साल में कुछ माह बाद में ऐसे भी आए जब बाबू साहब का स्वास्थ्य गड़बड़ाया। कमजोरी के चलते पांच नंबर कक्ष की देहरी चढऩे में दिक्कत होने लगी। मेरी टेबल दरवाजे के निकटतम होने से उन्हें छूकर, हाथ पकड़कर अन्दर तक लाने का सौभाग्य मिला। अक्सर पाटनी जी या मुझे यह अवसर मिलता। ऐसा कई माह में हुआ। एक अद्भुत तेज था उनके शरीर में। आज भी महसूस होता है जैसे वो छूना ज्योतिर्लिंग छूने जैसा था। और, शायद यही वजह है कि #अहसहमति_की_स्वीकार्यता और किसी के भी सामने अपना #स्पष्ट_मत रखने, दोनों तरह का साहस उन विभूतियों से मैं आत्मसात कर पाया। बाबू साहब 17 जनवरी 2006 को गोलोकवासी हो गए।
      आज, 'यस बोस'की संस्कृति में आकंठ ढल चुके संपादकों/पत्रकारों और राजनेताओं के लिए कुलिशजी का पत्रकारीय दर्शन एक प्रासंगिक पाठशाला है, इन्हें इनसे अवश्य सीखना चाहिए। #KCK, #KarpoorChandraKulish

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Saturday, January 11, 2020

अनुभवहीनों को ही चौंकाता है पुलिस-अपराधी गठजोड़

                                                                                                        फ़ोटो साभार : राजस्थान पत्रिका ई पेपर


संदर्भ-  #रणवीरचौधरीहत्याकांड से पहले बर्थडे पार्टी


-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-
कुछ वर्ष पहले कोटा जिले के चेचट थाने में एक युवक को नशेड़ी कहकर बार-बार थाने बुलाने पर उसने शहर में रहने वाले अपने काकाजी को बताया। संभ्रांत पेशे से जुड़े काकाजी ने थाने में संपर्क कर अपना और युवक का पक्ष रखा। थाने से रिस्पांस तो मिला लेकिन युवक को एक-दो दिन बाद फिर बुला लिया गया। ऐसे में काकाजी ने खुद थाने पहुंचकर बात करने का तय किया। काकाजी 70 किमी दूर थाने पहुंचे तो पुलिसकर्मियों का खास रिस्पॉन्स नहीं था। इसी दौरान थाने में मंडरा रहे गांव के नंबरी लोगों ने काकाजी को पहचान लिया। एक पुराना शातिर जो खुद अब बुजुर्ग हो गया था, कुछ देर काकाजी से बात करता रहा। एक युवक ने ढोक देकर टिप्पणी की कि "काकाजी तो काकाजी ही हैं।" यह सब देख पुलिसकर्मी अचरज में थे। पुराने शातिर से जिज्ञासावश कुछ ने पूछ लिया। उसने बताया कि "ये पुराने बोस रहे हैं यहां के। सब कुछ निपटाकर शहर चले गए, वहीं शांति से रहते हैं। " इसके बाद पुलिसकर्मियों का रुख बदल गया। रिस्पॉन्स के साथ ही युवक को थाने बुलाने के झंझट से भी मुक्ति मिल गई। #रणवीरचौधरीहत्याकांड में जिन गैंगवार का जिक्र इन दिनों हो रहा है उनमें एक प्रकरण इस थाने का भी है। 25 अप्रेल 2011 को गैंगस्टर रमेश जोशी की 40 से ज्यादा गोलियां मारकर हत्या की गई थी। थाने के स्टाफ की भूमिका इस केस में भी लोगों की नजर में असंदिग्ध न तब थी और ना ही आज। आरोपी एक रात पहले से कस्बे में जमा थे। कुछ तो एक-दो दिन से तैयारी में थे।

     गुजरे 14 दिसंबर को मैं अपने निकट रिश्तेदार के साथ कोटा के उद्योग नगर थाने में बाइक देखने गया तो चोरी की बाइक पड़ी होने वाले स्थान पर (मालखाने) झुंड बनाकर कुछ युवक कुर्सियों पर बैठे थे। हम दोनों को देख एकदम खड़े होकर नमस्कार किया। बैठने का आग्रह भी। हमारे माजरा बताने पर वे शंकालु बैठे। अनुभव के आधार पर मैं दावा कर सकता हूं कि वे आम सदाशय नागरिक निश्चित ही नहीं थे। तो फिर उनका थाने में क्या काम? थाना तफरीहगाह तो होता नहीं। कोटा शहर अथवा बाहर भी किसी भी थाने में चले जाइये, आपको युवाओं का समूह अनावश्यक घूमता मिल जाएगा। कौन हैं ये, खबरी के नाम पर थानों में मंडराने वाले?

      जनाब! रणवीर चौधरी की हत्या वाले दिन 22 दिसंबर को भले ही एक पुलिस अधिकारी के फॉर्म हाउस पर आयोजित पार्टी में गैंगस्टर्स और पुलिस अफसर, पुलिसकर्मी शामिल हुए लेकिन यह खुलासा अनुभवहीनों को ही चौंकाता है। पुलिस-अपराधी गठजोड़ से वास्ता रोजमर्रा में आम नागरिक का जितना पड़ता है, शायद चंद लोगों से घिरे इन तथाकथित तजुर्बेकारों का नहीं। पार्टी में शामिल पुलिसकर्मियों के हत्या की साजिश में शामिल होने के नतीजे पर पहुंचने की इजाजत मेरा विवेक नहीं देता लेकिन इतना तय है कि इससे पुलिस-अपराधी-मुखबिरी के गठजोड़ की एक और तस्वीर सेल्फी स्टाइल में मार्केट में आ गई। दस वर्ष पहले भरतपुर में पदस्थापन के दौरान अक्सर सुबह और शाम को जब मैं अपने फोटोग्राफर साथी के साथ शहर में घूमने निकलता था, तब मथुरागेट थाने के दो-तीन पुलिसकर्मी हमें गलियों में अक्सर मिल ही जाते थे। कथित मुखबिरी और सट्टे पर कार्रवाई के नाम पर। अनौपचारिक बातचीत में वे सब खर्ची निकालने की बात मानते ही थे।

       दरअसल, वर्दीवाला गुंडा, गंगाजल, सहर, वास्तव, गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी तमाम फिल्में कपोल-काल्पनिक नहीं हैं। इनमें गैंगस्टर्स और पुलिस का गठजोड़ समाज और सिस्टम में स्थापित तथ्य ही है। मुखबिरी की स्वीकार्य व्यवस्था के अंग के रूप में आपराधिक तत्व पुलिस से जुड़ाव रखने लगते हैं। यूं भी शरीफ आदमी क्यों मुखबिरी करने लगा भला बदमाशों या बड़े गैंगस्टर्स की। बस, यहीं इनके रसूखात मजबूत होते जाते हैं। दशकों पुरानी व्यवस्था तो अब पुलिस सिस्टम में प्राणवायु तुल्य हो गई है। जमीनी पुलिसकर्मियों में आत्म असुरक्षा का भाव, न्याय में देरी, गंभीर अपराधों में जमानत अथवा साक्ष्य/गवाह पक्षद्रोही होने की स्थिति में बरी होने और बदमाशों के खुले घूमने जैसे कई गंभीर कारण हैं इन संबंधों के पीछे। स्वयं और परिवार को राजकीय वेतन से अतिरिक्त आर्थिक मजबूती देने की लालसा भी बड़ी वहज है। राजस्थान के पुलिस महानिदेशक तो थानों तक में सफाई की बात कह चुके। लेकिन सफाई करे कौन?  कैसे करे। मुखबिरी का वैकल्पिक स्वच्छ तंत्र कहां से लाएं।

हो सकते हैं ये तीन काम

तीन काम हो सकते हैं। जिन्हें मैं अक्सर विभिन्न मंचों पर कहता रहता हूं।

इंटेलिजेंस विंग तैयार करें: पुलिस खुद अपनी इंटेलिजेंस विंग तैयार करे। ठीक मिलिट्री इंटेलिजेंस की तर्ज पर। ऐसे में मुखबिरों की व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी और इस दरवाजे से थानों में दखल रखने वाले अपराधियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा सकेगा। यह व्यवस्था कानून-व्यवस्था बनाए रखने में मददगार हो सकेगी। आलोचक कह सकते हैं कि इंटेलिजेंस ब्यूरो से काम लिया जाए, वहां से इनपुट आते हैं लेकिन पुलिस ध्यान नहीं देती। उनको कहना चाहूंगा कि इसीलिए पुलिस की खुद की विंग अधिक कारगर होगी।

इंवेस्टीगेशन एजेन्सी अलग बने: पुलिस सिस्टम में आमूल बदलाव हो। पुलिस का काम सिर्फ सुरक्षा-व्यवस्था ही रहे। इंवेस्टीगेशन एजेन्सी अलग बने। अपराध रोकना ही पुलिस का काम हो। अपराध घटित होने के बाद उनकी भूमिका समाप्त। नई एजेन्सी जांच व आरोप पत्र के साथ ही अभियोजन विभाग के साथ मिलकर आगे का काम देखे। इससे जांच के नाम पर भ्रष्टाचार पर नकेल कसेगी, अपराध घटित होने पर थानों को जवाबदेह बनाया जाए। सुरक्षा में चूक मानते हुए संबंधित थाने के पुलिस प्रभारी अधिकारी को कार्रवाई फेस करनी पड़े, ठीक सैन्य बलों की तर्ज पर।

गैंगवारी में जल्द फैसले: हत्या जैसे जघन्य और गैंगस्टर्स से जुड़े मामलों में दुष्कर्म मामलों की तर्ज पर जल्द फैसले होने लगें। अमूमन एक गैंगस्टर का दौर एक से डेढ़ दशक रहता है। अपवाद अवधि कम-ज्यादा हो सकती है। ऐसे में जल्द फैसलों से इनका दौर सीमित और अंत जल्द होने से ईमानदार पुलिसकर्मियों को फील्ड के व्यावहारिक दबाव से मुक्ति मिल सकेगी।

सारत: पुलिस अपराधी गठजोड़ तोडऩे के लिए रीढ़ पर चौतरफा मार करनी होगी। इसके लिए क्या हमारी केन्द्र व राज्य सरकारें 56 इंची सीना रखती हैं। नहीं, तो ऐसे ही साजिशन हत्या से पहले की बर्थडे पार्टियों की नई स्टाइल की तस्वीरें सामने आती रहेंगी। गठजोड़ के कंधों की बदौलत कड़ी सुरक्षा के बीच लाए जा रहे भानुप्रताप जैसे गैंगस्टरों की फूलप्रूफ षड्यंत्रों के साथ हत्याएं (18-19 अप्रेल 2011 की रात) होती रहेंगी। और सबक के तौर पर आशंका में राजू ठेहट (सीकर कोर्ट में 10 जनवरी 2020 को लाए) जैसे अपराधियों को बुलेट प्रूफ जैकेट में लाने की कथित मजबूरियां भी पेश आती रहेंगी।

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