Monday, August 21, 2017

खुल्ला बोल @कोटा पुलिस: ये क्या हो रहा है..!



-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-
एक युवक लापता होता है, उसकी मां दो माह बाद रिपोर्ट कराती है, पुलिस का अनुसंधान ७ महीनों तक चलता है, एक दिन एक अन्य मामले में एक अपराधी हत्थे आता है, संयोग से उसके लापता युवक का दोस्त होने का पता चलने पर पुलिस पूछती है और वह सुदूर ले जाकर उसकी हत्या करने तथा  शव नाले में फेंकना कबूल कर लेता है। पुलिस गाल बजा लेती है इस पर कि खुलासा हो गया! बजाय शर्म करने के कि,    अपराधी उसकी नाक तले नौ माह तक शान से रहा और उसे भनक तक नहीं लगी!
और देखिये! पिता के मां पर अत्याचार रुकवाने को बच्चे थाने की ओर कई बार मुखतिब होते हैं, पुलिस की संवेदनाएं न जाने कहां लॉकअप में सड़ती रही, आखिर एक दिन बच्चों से मां छिन ही गई, अब पुलिस जांच जारी है।
इसी तरह, घर पर झगड़ रहे सगे भाइयों के तेवर देख एक की पत्नी थाने में जाती है कि अनहोनी न हो जाए। पर, पुलिस की संवेदना लॉकअप से नहीं निकलती। और, राखी से एक दिन पहले बहिन के घर पर रहते एक भाई दूसरे को मार डालता है,  तब फिर बेशर्म पुलिसिया जांच शुरू हो जाती है।
यही नहीं, रोज-रोज घर पर आकर पड़ोसी के झगडऩे से तंग एक ऑटो चालक थाने की शरण लेता है। लिखित में फरियाद भी देता है लेकिन फिर वर्दी वाले अपने अंदाज को छोड़ नहीं पाए और उसे मौत के घाट उतार ही दिया जाता है। मौत के बाद पुलिस भूमिका में आ जाती है।
जनाब, ना तो ये कलादीर्घा में प्रदर्शित चित्रों का शाब्दिक वर्णन है और न ही किसी थिएटर में मंचित नाटकों की किस्सागोई! यह कोटा शहर पुलिस की कार्यशैली की अप्रिय तस्वीर है जो हालिया घटनाओं में छिटकी रक्त बूंदों से उभरी।
'अंतिम बार किसके साथ देखा गया था लापता युवक और कौन साथ रहता था', इन दो साधारण बिन्दुओं पर भी जांच हो जाती तो लापता युवक का हत्यारा जनवरी में  ही धरा गया होता। थानों में पहुंचे परिजनों की सुनवाई कर थोड़ी पुलिसिया आंखें तरेर दी गई होती तो शायद राजकुमारी, रामप्रसाद और लालसिंह जिन्दा होते।

लोगों की सुरक्षा की जवाबदेही वाले इस महकमे को जड़ों में लगी घुन चिह्नित करनी ही होगी। कहां है बीट कांस्टेबल व्यवस्था? कहां गई मुखबरी? थाने तक बात पहुंचने के बाद भी अपराधी हत्या कर दें तो कहां बचा खौफ? बीट कांस्टेबल वसूली तक सीमित हो गए, विवादों में मुम्बइया तर्ज पर 'मांडवली ' कराते फिरते हैं।
पुलिस महकमा कोई सरकारी प्राइमरी स्कूल नहीं जनाब, जो मस्ती की पाठशाला में तब्दील हो जाए तो भी हैड मास्टरजी और ऊपर स्कूल इंस्पेक्टर इग्नोर करते रहें! यह लोक सुरक्षा से जुड़ा मसला है। लोगों की शांति-जीवन की रक्षा से जुड़ा मसला है। जाहिर है, जवाबदेही भी उतनी ही कठोर। अशोक चिह्न कंधे पर ऐसे ही नहीं मिलता जनाब। इसे धारण करते वक्त ली गई शपथ को स्मरण करने मात्र से वह शक्ति आ सकती है कि हालात पर ईमानदारी से मंथन कर जड़ों में लगी दीमक निपटा दी जाए।  'भाई साहबों ' के इस शहर में शहर चुनौती कठिन हो सकती है लेकिन असंभव नहीं। मुखिया पदों पर  बैठे भारसाधक अधिकारी चिंतन कर 'एक्शन
' मोड में आ जाएं तो उजली तस्वीर कैनवास पर आने से कोई नहीं रोक सकता। अपराधी भी नहीं। शैक्षणिक नगरी कोटा को बस शांति से ही इत्तेफाक है।

dhitendra.sharma@epatrika.com/ dhitendra.sharma@gmail.com

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