यहां पर्वों के उत्साहपूर्ण आयोजनों को संकुचित करने अथवा बांधने का सुझाव देने की मंशा कतई नहीं है। ना ही आम रास्तों के अवरुद्ध होने से जूझती जिन्दगी को सरल बनाने के लिए उत्सवों के महत्व को नकारने का दुस्साहस है। लेकिन, संतुलन की बात तो अवश्य करनी होगी। आस्था और व्यवस्था का संतुलन! यह संतुलन बनाना अब वक्त की मांग है! कुशल और प्रगतिशील शासन की कटिबद्धता मतांध श्रद्धा के आगे नतमस्तक होकर आमजन को उसके हाल पर छोडऩा नहीं, आस्था और व्यवस्था दोनों को कानून के दो पलड़ों में साधकर लोककल्याण करना है!
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-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-
सनातन संस्कृति की विरासत को सहेजे और गंगा-जामुनी परंपराओं का वाहक होने के चलते हिमालय की गोद में बसा पुण्यधरा हमारा भारतवर्ष कश्मीर से कन्याकुमारी तक और द्वारका से जगन्नाथ पुरी और सुदूर पूर्वोत्तर अरुणाचल की वादियों तक शताब्दियों से धार्मिक-आस्था का बड़ा केन्द्र है। हर धार्मिक उत्सव को यह पवित्रता और अप्रतिम उल्लास से आलिंगन करता दिखता है। हाल ही गणपति उत्सव की धूम रही। हर गांव-शहर, महानगर क्षेत्र में सैकड़ों-हजारों पांडाल में गणपति बप्पा को विराजित किए श्रद्धालु भक्ति से सराबोर रहे। पांडालों के अलावा गली-मोहल्लों में बप्पा की प्रतिष्ठा हुई है सो अलग। हर कोई बुद्धि-प्रदाता की भक्ति में डूबा। नित्य-प्रति संकीर्तन हुए। जगह-जगह मेले लगे। यह आस्थाजन्य एक पहलू रहा है।
लेकिन, दूसरा पहलू भी कम महत्वपूर्ण नहीं था। हर चंद कदम दूरी पर पांडाल आम रास्तों को अवरुद्ध किए रहे। कई मोहल्लों में रास्ते रोक कर गणपति विराजित किए गए। ज्यादातर स्थानों पर चौराहों का उपयोग हुआ और नित्य-प्रति होता रहता है। रोज शाम को जाम जैसे हालात बन जाते हैं। इनमें कई मुख्य मार्ग तक शामिल हैं। गणपति उत्सव कोई एक दिन का नहीं। दस दिन बाद बप्पा की विदाई हुई। ऐसे में रोजमर्रा की जिन्दगी यातायात अवरोध से जूझती रही।
यहां इन पर्वों के उत्साहपूर्ण आयोजनों को संकुचित करने अथवा सीमाओं में बांधने का सुझाव देने की मंशा कतई नहीं है। ना ही आम रास्तों के अवरुद्ध होने से जूझती जिन्दगी को सरल बनाने के लिए उत्सवों के महत्व को नकारने का दुस्साहस है। लेकिन, संतुलन की बात तो अवश्य करनी होगी। आस्था और व्यवस्था का संतुलन! संविधान स्वीकृत सर्व नगरिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता का संतुलन !
मुद्दे की बात यह कि जब प्रतिवर्ष तय कैलेण्डर की भांति से सब आयोजन होने ही हैं तो इन्हें आमजन जीवन की गति में बाधा पहुंचाए बिना इसी उत्साह से सम्पन्न कराने की कोशिशें क्यों नहीं होती! खासकर तब, जबकि पिछले एक दशक में राजनीति में भाग्य आजमाने के आकांक्षी युवाओं के लिए ऐसे अयोजन और पांडाल "प्रथम पाठशाला" के रूप में लगभग स्थापित हो चुके हैं। और, यही लालसा ऐसे आयोजनों- पांडालों की संख्या में उत्तरोत्तर गुणात्मक वृद्धि ला रही है!
कहना ही होगा कि, यह संतुलन बनाना अब वक्त की मांग है। कुशल और प्रगतिशील शासन की कटिबद्धता मतांध श्रद्धा के आगे नतमस्तक होकर या आमजन को उसके हाल पर छोडऩा नहीं, आस्था और व्यवस्था दोनों को कानून के दो पलड़ों में साधकर लोककल्याण करना है।
(स्वतंत्र लेखक, राजनीतिक विश्लेषक और सामाजिक चिंतक।)
dhitendra.sharma@gmail.com