Monday, December 9, 2019

#Life_Funda: एक परीक्षा से बड़ी है 1400 किमी यात्रा की शिक्षा


यात्रा वृत्तांत: श्रीगंगानगर 30 नवंबर से 03 दिसंबर 2019

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करीब पंद्रह दिन द्वंद्व रहा कि राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा के ठीक एक दिन पहले 700 किलोमीटर से ज्यादा दूर छह से तयशुदा इस विवाह समारोह में पहुंचूं या नहीं। विवाह ससुराल पक्ष में भांजी का था और मैं तिथि तय होने के साथ ही निष्कपट वादा कर चुका था कि मथुरा में लग्न और श्रीगंगानगर में विवाह समारोह में अवश्य पहुंचूंगा। फच्चर तब फंसा जब एनटीए(नेशनल टेस्टिंग एजेन्सी) ने नेट की परीक्षा तिथियां घोषित की। यूं दो दिसंबर से शुरू होकर छह दिसंबर तक दो पारियों में चलने वाली इस परीक्षा में संयोग से मेरा क्रम दो दिसंबर को पहले दिन सुबह के प्रथम सत्र में आ गया।  स्पष्ट तौर पर एक दिसंबर को 700 किमी दूर विवाह के साक्षी बनकर किसी सूरत में सुबह 7.30 से 9 बजे के बीच (यही रिपोर्टिंग समय था)परीक्षा केन्द्र पर पहुंचना संभव नहीं था।
आखिर, एनवक्त परिवार का पुराना फॉर्मूला स्मरण हो आया। बात वर्ष 1987, 19 अप्रेल की है। मेरे ताऊजी के सुपुत्र और हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े भाई साहब का विवाह था। मैं और ताऊजी का सबसे छोटा पुत्र तब 7 वीं कक्षा में थे। कोटा शहर के स्कूल में हमारा दाखिला था। संयोग से विवाह की तिथिको हमारी वार्षिक परीक्षाएं आ गई। तत्समय लगभग संयुक्त परिवार में चिंतन-मनन के बाद ताऊजी और दादाजी ने तर्क सहित निर्णय सुझाया। यह कि, परीक्षा हर साल होगी, भाई का विवाह सिर्फ अभी एक ही बार होना है। मतलब साफ था। परिवार को प्राथमिकता देनी है, शादी में ही रहना है। हालांकि तब पिताजी के शिक्षा विभाग में प्रभाव के चलते हम दोनों भाइयों का एनवक्त जिला इंस्पेक्टर की अनुमति से पैतृक गांव चेचट के हाईस्कूल में प्रवेश हुआ। हमने वहां विवाह का आनन्द भी लिया और परीक्षा भी दी।
नेट की परीक्षा में दोनों का मध्यमार्गी विकल्प अब संभव नहीं था। परीक्षा केन्द्र बदला नहीं जा सकता। लिहाजा, परिवार के सर्वोच्च न्यायालय (बुजुर्गों) के 32 वर्ष पुराने निर्णय के मुताबिक परिवार प्राथमिकता और परीक्षा त्याग का विकल्प ही शेष था। यहां नेट की परीक्षा वर्ष में दो बार होने का आश्वासन मन को दिया जा सकता था। इससे पहले वर्ष 2014 में दिसंबर में सफल/पात्र घोषित न होने का तर्क भी विवाह के समर्थन में मजबूती दे रहा था। यूूं भी बीच के 5 साल आवेदन ही नहीं किया था।

सभी तर्कों से मजबूती मिलने के बाद आखिर श्रीगंगानगर का सहोदर के साथ यात्रा का रेल बर्थ आरक्षण करा लिया गया। 30 सितंबर को शाम 5 बजकर 20 मिनट पर हमारी कोटा-श्रीगंगानगर ट्रेन से यात्रा शुरू हो गई। जाते वक्त रात करीब साढ़े 10 बजे तक जयपुर तक की यात्रा रूटीन ही रही। वर्ष 2013 सितंबर से 19 मार्च 2015 तक बाडमेर पोस्टिंग के दौरान इसी ट्रेन से जयपुर तक यात्रा होती थी, तो नया कुछ लगा नहीं। इसके बाद बर्थ खोलकर सोने का स्वभाव रहता था तो इस बार भी नींद को चले गए। पहली बार थार आंचल और राजस्थान के सुदूर इस अंतरराष्ट्रीय सीमावर्ती जिले की ओर जा रहा था। अन्य ट्रेनों की चिल्लपौं के मुकाबले अपेक्षाकृत शांत स्वभावी इस ट्रेन में कब आगे के स्टेशन फुलेरा, सांभर, मेड़ता वगैरह आते रहे पता ही नहीं चला। बीकानेर में कुछ आवाजों से नींद टूटी। लेकिन अधकचरी ही रही।

चाय पसंद न आए तो पैसे वापस!

 सुबह के आठ बजे के ठीक ऊपर घड़ी के निकलते ही ट्रेन के हल्के होने के साथ नींद हल्की हुई। करीब 3 मिनट में ट्रेन के पहिए रुक गए। लत के मुताबिक चाय की तलब हुई। तुरुंत दरवाजे की ओर गया। आवाज लगाई, भाईजी दो चाय देना। हमारे स्वर ने उसे परदेसी होने का संदेश दे दिया। कुछ सैकंड में वह आया। बोला-सरजी, पीलीबंगा की चाय है, स्वाद पसंद न आए तो पैसे वापस। मैं हंसकर बर्थ पर चाय लेकर लौटा। वह फिर कोच में चढ़ा और यही आवाज लगाई, पीलीबंगा की खास चाय, चखकर देखें, स्वाद पसंद न आए तो पैसे वापस। चाय की ही तरह अपनी मिठास, चातुर्य और स्वाद के विश्वास से उसने यात्रियों का भरोसा जीता। वहां बैठे गिने चुने शेष यात्रियों में से ज्यादातर ने उस स्टेशन वेंडर से चाय पी। पैसे वापस करने की नौबत किसी को नहीं आई।


हम टोकते हैं तो गले पड़ जाते हैं...

नींद अब काफूर हो चुकी थी। यूं भी नए क्षेत्र को देखने की ललक थी। आगे हनुमानगढ़ आया। करीब एक घंटे बाद। ठंड ने अपना रुतबा रात को ही बता दिया था। यहां से ट्रेन पुन: विपरीत जानी थी। इसलिए इंजन बदलना था। यानी करीब 15 मिनट व्यतीत करने थे। लोगों से बात के बहाने नीचे उतरा। एक वेंडर से पुन: चाय ली और चुस्की लेते हुए पकौड़ी वाले के यहां आ गया। आपका समझौता दिखता है कि चाय वह बेचेगा और पकौड़ी आप...ऐसा कहते हुए मैंने मुस्कुराते हुए मानमल तंवर नाम लिखी स्टॉल के इस वेंडर से चर्चा छेड़ी। फिर इस सीमावर्ती इलाके में ट्रेनों के साधन समेत लोक व्यवहार पर भी बात हुई। स्टेशन साफ दिखा तो पीएम #नरेन्द्र_मोदी की तारीफ सामने आए। साथ ही पीड़ा भी झलकी। बोला-सरजी, 19 करोड़ का ठेका है चार स्टेशनों पर सफाई का। आठ-आठ घंटे की शिफ्ट में चौबीस घंटे सफाई हो रही है। मैंने कहा, लोग जैसे-जैसे गंदगी फैलाने से परहेज करेंगे, बजट घटता जाएगा। सुनते ही तपाक से बोला- अभी देख लो सरजी, जिसे ठेका दिया उसे तो पोछा फेरना ही है, साफ है तब भी चलेगी पोछा मशीन। लोग ट्रेन से प्लेटफॉर्म पर फेंक जाते हैं। हम टोकते हैं तो गले पड़े जाते हैं कि तेरा क्या है। लेकिन मैं तो टोकता हूं। उसने पीड़ा जताई कि लोग मान जाएं और कचरा पात्र में कचरा डालें तो फीडबैक के आधार पर शिफ्ट कम हो सकती है, बजट 19 करोड़ का आधा हो सकता है। इसी वेंडर ने हमें यहां से श्रीगंगानगर की यात्रा अवधि 40 मिनट बताई। ठीक 10 बजकर 32 मिनट पर हम गंतव्य स्टेशन पहुंच गए।


मानव जब जोर लगाता है

रास्ते में सुबह के वक्त ही ससुराल पक्ष से बहिनजी और भानेज ने लोकेशन पूछकर स्टेशन पर लेने आने का आग्रह कर दिया था, लिहाजा उन्हें सूचना दे दी गई। महज 5-7 मिनट में गाड़ी आ गई। तब तक के समय का उपयोग हमने नजर दौड़ाने और सेल्फी (फोटो) लेने में किया। कुछ ही मिनट में हम विवाह निमित्त किराए पर लिए अस्थाई आवास पहुंच गए। शाम को पाणिग्रहण के अलावा और कोई आयोजन इस दिन था नहीं। तुरंत स्नान आदि कर तैयार हुए। शहर भ्रमण को मन बनाया। सर्व प्रशंसित स्थान #जगदंबा_अंध_विद्यालय बताया गया।यह एक तपोस्थली। दस रुपए सवारी की दर से हम छह जने करीब 7 किलोमीटर दूर इस अंध विद्यालय में पहुंचे। शाम के 4 तब तक बज चुके थे। भव्य दरवाजे की शालीनता में मानो चुंबक सा अहसास था। दरवाजे पर थोड़ी देर में बच्चे कहीं से कतारबद्ध आए और अंदर चले गए।  अपने मोबाइल कैमरे में कुछ कैद करने की नीयत से हम बढ़ रहे थे। लम्बे चौड़े परिसर में लगे होर्डिंग देख समझ नहीं आया कि किसके हैं। आधा किमी अंदर एक और भव्य दरवाजे ने आंखें खोल दी। वह नि:शुल्क उपचार में सेवारत नेत्र चिकित्सालय का प्रवेश द्वार था। विहंगम परिसर में दांई ओर विशेषयोग्जन नेत्रहीन बच्चों का स्कूल था। सामने #नागेश्वर_महादेव_तीर्थ नाम से भव्य क्रिस्टल मंदिर। मंदिर के नीचे अद्भुत शिल्प और रचनात्मकता के संदेश से तैयार की गई गुफा। एक घंटे तक हम इन सब को निराहते रहे। करीब 15 साल पहले यहां कई माह रह चुके अजय भाई साहब(ससुराल पक्ष में) ने बताया कि यह सब एक संत ने बनवाया है। उन्हीं की परिकल्पना थी। वे स्वयं उनसे डेढ़ दशक पूर्व मिले थे। अब तक की निस्वार्थ भव्यता में जो कुछ खटक रहा था उसका उत्तर भाई साहब से मिल गया। वाकई ऐसा समर्पण किसी संत के ही वश में था। अन्यथा युग की रफ्तार में अकलुषित सृजन कहां संभव!


कन्या बन सकती है देवी


मंदिर व गुफा के दर्शन करने और आशुतोष भैया(श्रीमतीजी के भतीजे) के साथ शूटिंग में हमें साढ़े पांच बज चुके थे। लगातार अस्थाई आवास से फोन आ रहे थे। विवाह समारोह स्थल सबको पहुंचना था। हम निकलने लगे कि गैटमैन की तरह बैठे संभ्रांत से दिखने वाले सज्जन हमे परदेसी होने के नाते स्थान का महत्व और जीवन दर्शन समझाने लगे। साथ में छवि बहिनजी (भतीजी) को देख बोले-बेटी जिस घर में रहती है वो स्वर्ग है। बेटा मन में छल, द्वेष नहीं लाना, सबका भला सोचो। घर में कोई भी कुछ कहे आपके भले के लिए तो नाराज न हो, कुछ गर्म भी कह दे तो जाने दो। मन को निर्मल रखा तो बेटी साक्षात् देवी ही है और उसकी कही हर बात देवी के वरदान की तरह घर में सत्य साबित होगी। स्वर्ग हो जाएगा घर।
फिर उन्होंने बेटी के सम्मान और देवी स्वरूप बनाने के रास्ते बताए। उनसे विदाई लेकर हम जूते पहन रहे थे तब किसी ने बताया कि वे सज्जन भारतीय सेना से सेवानिवृत्त कर्नल हैं। वे इसी स्थान को समर्पित हैं। निर्मल मन पर ही उनका जोर रहता है, इसी को वे ईश्वर प्राप्ति का मार्ग मानते हैं। महात्मा जी से हमारी मुलाकात नहीं हो पाई, ना ही हमने उनके बारे में किसी से पूछा। फुर्ती से बाहर आकर ऑटो को हाथ दिया और आवास आ पहुंचे।
वापसी
रात को विवाह समारोह गरिमामय तरीके से सम्पन्न हो गया। पिताजी के बारंबार आग्रह के बावजूद कोट पेंट सूट ना लाने नतीजा यहां दोनों भाइयों को सर्दी में ठिठुकर भुगतना पड़ा। ऐसा उन सभी के साथ हुआ जिन्होंने बड़ों की राय के विपरीत 28 तारीख तक बनी हुई गर्मी पर भरोसा किया और मौसम एन मौके 30 तारीख की रात को धोखा दे गया। खैर, अगले दिन दो दिसंबर को विदाई और दुल्हन का पगफेरे की रस्म पूरी हो गई। दिन में कुछ समय एक बालाजी मंदिर में दर्शन को गए। यह अंध विद्यालय के समीप था लेकिन तब तक हमे इस बारे में पता नहीं था। सालासर की तर्ज पर विकास की इच्छा यहां के निर्माताओं स्पष्ट परिलक्षित थी।

शाम पांच बजकर 40 मिनट पर हमारी ट्रेन थी। वही श्रीगंगानगर- कोटा। वक्त के ठीक पहले हम पूरी ताकत लगाकर स्टेशन आ पहुंचे। ठीक समय पर ट्रेन धड़धड़ा करती आगे बढऩे लगी। पीछे छूटता गया वो क्षण जो आते वक्त हमसे जुड़ा था। वापस पीलीबंगा में चाय के पैसे वापस की याद ताजा हुई, उसे नजरों ने खोजा लेकिन इस बार नियति ने उसे हमारी बोगी के पास नहीं भेजा। रात पौने 9 बजते बजते हमने बर्थ खोल ली। श्रीमतीजी, बेटी डिम्पी विश्राम को लेट गए। मैं अपनी टीम के शिशु यूट्यूब चैनल (सुजलाम-सुफलाम) के लिए कुछ तैयार करने में व्यस्त रहा। आंखों के तकाजे पर मैं भी 11 बजे शयन को लेट गया। आठ डिग्री की ठंड का अपना असर था ही। कंबल शॉल चारों में एडजस्ट कर हम  सभी सो गए। सुबह साढ़े  7 बजे आंख खुली तो ट्रेन सवाईमाधोपुर स्टेशन पर थी। दोनों भाइयों ने चाय का आनन्द लिया। ट्रेन चली तो मौसम की तासीर को कैमरे में कैद किया। 10 बजे हम कोटा लौट आए। मध्यवर्गीय परिवारों की शाश्वत परंपरा के मुताबिक विवाह के दृष्टांतों में दिन गुजर गया। अगली सुबह अखबार में नेट परीक्षा से जुड़ा समाचार था। मैंने अपनी तिथि का जिक्र पिताजी से कर दिया कि दो को पेपर था। एक बारगी तो उन्होंने कहा कि दे सकता था, फिर हंकर बोले-वैसे अपने परिवार का फॉर्मूला तो यही था कि परीक्षा हर साल होती है, और शादी एक बार। मैंने उसमें ठहाका जोड़ा, नेट की तो हर छह माह में होती है। अखबार वाचन के बाद रोजमर्रा का रूटीन शुरू हो गया। .......वाकई एक परीक्षा को भले ही छोड़ा लेकिन जीवन के कई तजुर्बे वहां से लेकर लौटे हैं। वे परीक्षा कक्ष में कम्प्यूटर स्क्रीन के सामने तो कम से कम कतई नहीं मिलते।

फंडा यह कि 
-#बुजुर्गों के बताए रास्ते कभी गलत दिशा में नहीं जाते।
-परिवार से समाज और राष्ट्र है। इसी के लिए शिक्षा की जरूरत। घर, परिवार, समाज के विकास का साधन है #शिक्षा_कॅरियर। साध्य को केन्द्र में रखकर ही निर्णय हो।
-ऐसे द्वंद्व में छूटने से ज्यादा पाने का ईश्वर आपके लिए खोल देता है, बशर्ते हम उनके दूत अपने पूर्वजों बुजुर्गों के बताए रास्ते पर बढ़ें।

-धीतेन्द्र कुमार शर्मा
dhitendra.sharma@gmail.com/
Youtube Channel; sujlam suflam

To See The Vedio please Click below link 
https://www.youtube.com/watch?v=Gn-PIqZe6xA&t=87s
https://www.youtube.com/watch?v=vDTgSt1ibXQ&t=151s

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