Saturday, January 11, 2020

अनुभवहीनों को ही चौंकाता है पुलिस-अपराधी गठजोड़

                                                                                                        फ़ोटो साभार : राजस्थान पत्रिका ई पेपर


संदर्भ-  #रणवीरचौधरीहत्याकांड से पहले बर्थडे पार्टी


-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-
कुछ वर्ष पहले कोटा जिले के चेचट थाने में एक युवक को नशेड़ी कहकर बार-बार थाने बुलाने पर उसने शहर में रहने वाले अपने काकाजी को बताया। संभ्रांत पेशे से जुड़े काकाजी ने थाने में संपर्क कर अपना और युवक का पक्ष रखा। थाने से रिस्पांस तो मिला लेकिन युवक को एक-दो दिन बाद फिर बुला लिया गया। ऐसे में काकाजी ने खुद थाने पहुंचकर बात करने का तय किया। काकाजी 70 किमी दूर थाने पहुंचे तो पुलिसकर्मियों का खास रिस्पॉन्स नहीं था। इसी दौरान थाने में मंडरा रहे गांव के नंबरी लोगों ने काकाजी को पहचान लिया। एक पुराना शातिर जो खुद अब बुजुर्ग हो गया था, कुछ देर काकाजी से बात करता रहा। एक युवक ने ढोक देकर टिप्पणी की कि "काकाजी तो काकाजी ही हैं।" यह सब देख पुलिसकर्मी अचरज में थे। पुराने शातिर से जिज्ञासावश कुछ ने पूछ लिया। उसने बताया कि "ये पुराने बोस रहे हैं यहां के। सब कुछ निपटाकर शहर चले गए, वहीं शांति से रहते हैं। " इसके बाद पुलिसकर्मियों का रुख बदल गया। रिस्पॉन्स के साथ ही युवक को थाने बुलाने के झंझट से भी मुक्ति मिल गई। #रणवीरचौधरीहत्याकांड में जिन गैंगवार का जिक्र इन दिनों हो रहा है उनमें एक प्रकरण इस थाने का भी है। 25 अप्रेल 2011 को गैंगस्टर रमेश जोशी की 40 से ज्यादा गोलियां मारकर हत्या की गई थी। थाने के स्टाफ की भूमिका इस केस में भी लोगों की नजर में असंदिग्ध न तब थी और ना ही आज। आरोपी एक रात पहले से कस्बे में जमा थे। कुछ तो एक-दो दिन से तैयारी में थे।

     गुजरे 14 दिसंबर को मैं अपने निकट रिश्तेदार के साथ कोटा के उद्योग नगर थाने में बाइक देखने गया तो चोरी की बाइक पड़ी होने वाले स्थान पर (मालखाने) झुंड बनाकर कुछ युवक कुर्सियों पर बैठे थे। हम दोनों को देख एकदम खड़े होकर नमस्कार किया। बैठने का आग्रह भी। हमारे माजरा बताने पर वे शंकालु बैठे। अनुभव के आधार पर मैं दावा कर सकता हूं कि वे आम सदाशय नागरिक निश्चित ही नहीं थे। तो फिर उनका थाने में क्या काम? थाना तफरीहगाह तो होता नहीं। कोटा शहर अथवा बाहर भी किसी भी थाने में चले जाइये, आपको युवाओं का समूह अनावश्यक घूमता मिल जाएगा। कौन हैं ये, खबरी के नाम पर थानों में मंडराने वाले?

      जनाब! रणवीर चौधरी की हत्या वाले दिन 22 दिसंबर को भले ही एक पुलिस अधिकारी के फॉर्म हाउस पर आयोजित पार्टी में गैंगस्टर्स और पुलिस अफसर, पुलिसकर्मी शामिल हुए लेकिन यह खुलासा अनुभवहीनों को ही चौंकाता है। पुलिस-अपराधी गठजोड़ से वास्ता रोजमर्रा में आम नागरिक का जितना पड़ता है, शायद चंद लोगों से घिरे इन तथाकथित तजुर्बेकारों का नहीं। पार्टी में शामिल पुलिसकर्मियों के हत्या की साजिश में शामिल होने के नतीजे पर पहुंचने की इजाजत मेरा विवेक नहीं देता लेकिन इतना तय है कि इससे पुलिस-अपराधी-मुखबिरी के गठजोड़ की एक और तस्वीर सेल्फी स्टाइल में मार्केट में आ गई। दस वर्ष पहले भरतपुर में पदस्थापन के दौरान अक्सर सुबह और शाम को जब मैं अपने फोटोग्राफर साथी के साथ शहर में घूमने निकलता था, तब मथुरागेट थाने के दो-तीन पुलिसकर्मी हमें गलियों में अक्सर मिल ही जाते थे। कथित मुखबिरी और सट्टे पर कार्रवाई के नाम पर। अनौपचारिक बातचीत में वे सब खर्ची निकालने की बात मानते ही थे।

       दरअसल, वर्दीवाला गुंडा, गंगाजल, सहर, वास्तव, गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी तमाम फिल्में कपोल-काल्पनिक नहीं हैं। इनमें गैंगस्टर्स और पुलिस का गठजोड़ समाज और सिस्टम में स्थापित तथ्य ही है। मुखबिरी की स्वीकार्य व्यवस्था के अंग के रूप में आपराधिक तत्व पुलिस से जुड़ाव रखने लगते हैं। यूं भी शरीफ आदमी क्यों मुखबिरी करने लगा भला बदमाशों या बड़े गैंगस्टर्स की। बस, यहीं इनके रसूखात मजबूत होते जाते हैं। दशकों पुरानी व्यवस्था तो अब पुलिस सिस्टम में प्राणवायु तुल्य हो गई है। जमीनी पुलिसकर्मियों में आत्म असुरक्षा का भाव, न्याय में देरी, गंभीर अपराधों में जमानत अथवा साक्ष्य/गवाह पक्षद्रोही होने की स्थिति में बरी होने और बदमाशों के खुले घूमने जैसे कई गंभीर कारण हैं इन संबंधों के पीछे। स्वयं और परिवार को राजकीय वेतन से अतिरिक्त आर्थिक मजबूती देने की लालसा भी बड़ी वहज है। राजस्थान के पुलिस महानिदेशक तो थानों तक में सफाई की बात कह चुके। लेकिन सफाई करे कौन?  कैसे करे। मुखबिरी का वैकल्पिक स्वच्छ तंत्र कहां से लाएं।

हो सकते हैं ये तीन काम

तीन काम हो सकते हैं। जिन्हें मैं अक्सर विभिन्न मंचों पर कहता रहता हूं।

इंटेलिजेंस विंग तैयार करें: पुलिस खुद अपनी इंटेलिजेंस विंग तैयार करे। ठीक मिलिट्री इंटेलिजेंस की तर्ज पर। ऐसे में मुखबिरों की व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी और इस दरवाजे से थानों में दखल रखने वाले अपराधियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा सकेगा। यह व्यवस्था कानून-व्यवस्था बनाए रखने में मददगार हो सकेगी। आलोचक कह सकते हैं कि इंटेलिजेंस ब्यूरो से काम लिया जाए, वहां से इनपुट आते हैं लेकिन पुलिस ध्यान नहीं देती। उनको कहना चाहूंगा कि इसीलिए पुलिस की खुद की विंग अधिक कारगर होगी।

इंवेस्टीगेशन एजेन्सी अलग बने: पुलिस सिस्टम में आमूल बदलाव हो। पुलिस का काम सिर्फ सुरक्षा-व्यवस्था ही रहे। इंवेस्टीगेशन एजेन्सी अलग बने। अपराध रोकना ही पुलिस का काम हो। अपराध घटित होने के बाद उनकी भूमिका समाप्त। नई एजेन्सी जांच व आरोप पत्र के साथ ही अभियोजन विभाग के साथ मिलकर आगे का काम देखे। इससे जांच के नाम पर भ्रष्टाचार पर नकेल कसेगी, अपराध घटित होने पर थानों को जवाबदेह बनाया जाए। सुरक्षा में चूक मानते हुए संबंधित थाने के पुलिस प्रभारी अधिकारी को कार्रवाई फेस करनी पड़े, ठीक सैन्य बलों की तर्ज पर।

गैंगवारी में जल्द फैसले: हत्या जैसे जघन्य और गैंगस्टर्स से जुड़े मामलों में दुष्कर्म मामलों की तर्ज पर जल्द फैसले होने लगें। अमूमन एक गैंगस्टर का दौर एक से डेढ़ दशक रहता है। अपवाद अवधि कम-ज्यादा हो सकती है। ऐसे में जल्द फैसलों से इनका दौर सीमित और अंत जल्द होने से ईमानदार पुलिसकर्मियों को फील्ड के व्यावहारिक दबाव से मुक्ति मिल सकेगी।

सारत: पुलिस अपराधी गठजोड़ तोडऩे के लिए रीढ़ पर चौतरफा मार करनी होगी। इसके लिए क्या हमारी केन्द्र व राज्य सरकारें 56 इंची सीना रखती हैं। नहीं, तो ऐसे ही साजिशन हत्या से पहले की बर्थडे पार्टियों की नई स्टाइल की तस्वीरें सामने आती रहेंगी। गठजोड़ के कंधों की बदौलत कड़ी सुरक्षा के बीच लाए जा रहे भानुप्रताप जैसे गैंगस्टरों की फूलप्रूफ षड्यंत्रों के साथ हत्याएं (18-19 अप्रेल 2011 की रात) होती रहेंगी। और सबक के तौर पर आशंका में राजू ठेहट (सीकर कोर्ट में 10 जनवरी 2020 को लाए) जैसे अपराधियों को बुलेट प्रूफ जैकेट में लाने की कथित मजबूरियां भी पेश आती रहेंगी।

#DhitendraSharma  
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