Sunday, January 5, 2020

#JKLonHospitalKota: डॉक्टर नाकाम, अस्पतालों में बने अलग प्रशासनिक सेवा कैडर


 -धीतेन्द्र कुमार शर्मा
वर्ष 1974 से राजकीय शिक्षक के रूप में सेवाएं दे रहे मेरे पिताजी 1993 में जब राजस्थान लोक सेवा आयोग से अपने पांच मित्रों के साथ माध्यमिक विद्यालय प्रधानाध्यापक भर्ती परीक्षा में सफल होकर सवाईमाधोपुर जैसे तत्समय पिछड़े जिले में दूरस्थ आदिवासी बहुल गांवों में पदस्थापित हुए तो उन सभी ने एक ही सिद्धांत पर स्कूल संचालन किया कि यह प्रशासनिक पद है, व्यवस्थाएं संचालन प्रथम दायित्व है। स्कूल की टोंटी बदलने से छत टपकने तक पर उनका ध्यान रहता। तुरंत समाधान देना संकल्प। गांव वाले उनके इस सिद्धांत से प्रभावित होकर भक्त बनते चले गए।इसके बाद प्रधानाचार्य बनने और 2011 से 2015 के बीच सेवानिवृत्ति होने तक सभी ने इसी सिद्धांत पर स्कूलों का संचालन किया। कक्षा में पीरियड लेने के शिक्षण कार्य में वे तभी इन्वोल्व होते जब स्टाफ की कमी हो। इस सिद्धांत पर उन्हें विरोध का सामना भी करना पड़ता लेकिन वे स्पष्ट कहते, हम क्लास में पढ़ाएंगे तो बच्चों का ध्यान कौन रखेगा। वे सभी मित्र विभाग में सफलतम प्रधानाचार्यों में शुमार रहे जिनकी मुक्तकंठ से विरोधी उच्चाधिकारी भी तारीफ अब तक करते हैं। आप कहेंगे कि जेकेलोन में स्कूल संचालन कहां से आ घुसा। लेकिन, इस उदाहरण को अब जरा जेकेलोन अस्पताल कोटा या अन्य किसी भी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से लेकर बड़े अस्पताल के साथ जोड़कर देखें। रोजमर्रा में जो आमजन इनमें परेशानियों से रूबरू होता है, कथित भारसाधक अधिकारी से उसे जो निराशा हाथ लगती है उसे महसूस करें।

जनाब, कोटा के #जेकेलोनअस्पताल में 23 व 24 दिसंबर के दरम्यान हुई 10 बच्चों की मौत पर लोकसभा अध्यक्ष #ओमबिरला के ट्वीट और केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर के कांग्रेस नेता #राहुलगांधी पर कसे तंज के बाद मचे कोहराम को 10 दिन हो गए हैं। अव्यवस्थाओं पर उबल रही रक्तविहीन राजनीति में दलीय, प्रशासनिक, चिकित्सकीय, बाल संरक्षण जैसी अनेकानेक जांचें हो गई। मंत्रियों के सरकार बचाओ दौरे भी दनादन हुए। पक्ष-विपक्षी गुटीय वक्तव्य भी आए। उधर अस्पताल में बच्चों का मरना रोजमर्रा की तरह जारी है, पिछले 35 दिन में 110 का आंकड़ा हो गया।
अस्पताल में ही राजनीतिक जमावड़े में फोटो खिंचाती बेशर्म हंसी भी दिखी।

असल मसले पर चिंतन कम...

पूरा मीडिया भी कैमराजन्य अथवा शाब्दिक तल्खी के साथ इसी पर टीआरपी-रीडरशिप बढ़ाने की होड़ में जुटा लगता है। लेकिन असल मसले पर चिंतन कम ही दिख रहा।
#लोकसभास्पीकर के राजनीतिक ध्यानाकर्षण के बाद टूट पडऩे के भाव के साथ हुई मीडिया ट्रायल में ताबड़तोड़ हुए कथित खुलासों में व्यवस्थागत खामियां ही सामने आई हैं। यहां 28 में से 22 नेबुलाइजर खराब हैं, 111 में से 81 इंफ्यूजन पंप नाकारा, 101 में 28 मल्टी पैरा मॉनिटर, 38 में 32 पल्स ऑक्सीमीटर निकम्मे पड़े हैं। सेंट्रल ऑक्सीजन लाइन और अन्य उपकरणों के बारे में तो केन्द्रीय टीम ने मार्च 2019 में हुए निरीक्षण की रिपोर्ट में ही बता दिया था। इस टीम ने लेबर रूम और ऑपरेशन थिएटर में क्वालिटी कंट्रोल के लिहाज से अस्पताल प्रशासन को शून्य प्रतिशत अंक दिए।

हर शख्स भगवान के रूप में देखता है

यही नहीं, जमीनी सच और भी कड़वा है। गंदगी के ढेर, टपकती छतें, पानी पीने के स्थान बदहाल, टॉयलेट्स की तो बात करना ही बेमानी। अस्पताल में बच्चे उठाने और श्वान-सूअरों द्वारा भ्रूण नोंचने तक के उदाहरण मौजूद हैं। श्वान और सूअरों की यहां अति सहज आमदरफ्त रहती है।  यह सब उन सभी जिम्मेदारों की नजरों के सामने रोज होता है जिन्हें वहां आने वाला हर शख्स भगवान के रूप में देखता है, जी हां, भगवान के रूप में, भले ही वह काउंटर बैठकर पर्ची काटने वाला ऑपरेटर अथवा दवा वितरित करने वाला संविदाकर्मी ही क्यों न हो, लेकिन सभी इसे दरकिनार करते हैं।  ऐसा भी नहीं कि अस्पताल के खाते में पैसा न हो। हल्ले के बाद चिकित्सा मंत्री की बैठक में स्पष्ट हो गया कि ऑक्सीजन लाइन के लिए 28.80 लाख रुपए स्वीकृत हैं, अप्रेल में ही मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी ने 15 लाख रुपए ट्रांसफर भी कर दिए थे लेकिन साढ़े आठ लाख रुपए ही खर्च हो पाए। #राष्ट्रीयस्वास्थ्यमिशन में एक करोड़ रुपए बजट पड़ा है। आरएमआरएस में भी पैसा है लेकिन देखे और व्यवस्थाएं दुरुस्त करे कौन?

ऐसा नहीं कि यह सिर्फ कोटा के जेकेलोन अस्पताल में हो रहा है, एमबीएस में पर्ची बनने से पहले सीने में दर्द के युवा रोगी को न देखने और पत्नी के पर्ची लाइन में लगने के दौरान पति की मौत हो जाने के उदाहरण भी हैं। जिले अथवा प्रदेश के(अन्य प्रदेशों में भी) किसी भी सरकारी अस्पताल में चले जाएं, अपवाद को छोड़कर अव्यवस्थाओं का रैला मिल जाएगा। मौत पर कोटा में हल्ला मच रहा, जोधुपर, उदयपुर जयपुर राजधानी तक में ऑक्सीजन लाइन के हालात ठीक नहीं। झालावाड़ में इसी एक साल में 663 बच्चों की मौत हुई। किसे फुर्सत देखने की?

दरअसल, चिकित्सा सेवा में दुविधा औ द्वंद्व यह है कि चिकित्सक वरिष्ठ पदों पर अपने अहम तुष्टि के लिए आसीन भी होना चाहते हैं और अपनी रोजमर्रा में प्रेक्टिस से हटना भी नहीं चाहते। कहने को व्यवस्था देखने वाला पद भरा होता है लेकिन भारसाधक अधिकारी की उसमें रुचि नहीं होती। वे इसका तनाव नहीं लेना चाहते। उल्टे वरिष्ठता के साथ वे अपने निजी स्तर के अस्पतालों में मशगूल हो जाते हैं। राजकीय सेवा से कई गुना अधिक आय निजी प्रेक्टिस से होने के चलते स्थानांतरण पर नहीं जाना, वीआरएस जैसा दबाव बनाना इनकी परंपरा हो गई और सरकार चिकित्सा क्षेत्र की इन उलझी चुनौतियों में दिशाहीन महसूस होती है। नतीजतन, खामियाजा #कोटाजेकेलोनत्रासदी के रूप में सामने आता है।

राज्य व राष्ट्रव्यापी कवायद हो

पिताजी और मित्रों के स्कूल संचालन के सिद्धांत से इत्तेफाक रखते हुए मेरा स्पष्ट मत है कि प्रशासनिक पद पर आसीन व्यक्ति की सर्वोच्च प्राथमिकता सम्पूर्ण चाक-चौबन्द व्यवस्थाएं ही होना चाहिए। चूंकि स्कूल और अस्पतालों के हालात में जमीन-आसमान का अंतर है, अत: इसके लिए अलग सेवा कैडर बनाने पर अब राज्य व राष्ट्रव्यापी कवायद होनी ही चाहिए। राजस्थान में ऐसी कसरत वर्ष 2007-2008 में हुई थी। तत्कालीन सरकार ने पायलट प्रोजेक्ट के तहत जिला अस्पतालों में हैल्थ मैनेजर लगाए थे। लेकिन, अस्पतालों के प्रमुख चिकित्सा अधिकारी और हैल्थ मैनेजर्स के बीच रस्साकसी होने लगी थी। आखिर, चिकित्सकीय लॉबिंग के बाद वह व्यवस्था डेढ़-दो वर्ष में दम तोड़ गई। कई हैल्थ मैनेजर बीच में नौकरी छोड़ गए तो शेष का सरकार ने कार्यकाल नहीं बढ़ाया।
एक बार पुन: ऐसे ही किसी तंत्र के विकास की कसरत होनी ही चाहिए। सहायक कार्यपालक मजिस्ट्रेट स्तर के प्रशासनिक अधिकारी की इस पर नियुक्ति की जा सकती है, या अलग से चिकित्सा प्रशासनिक सेवा का गठन किया जा सकता है जो प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी हो।(https://twitter.com/dhitendrasharma/status/1213658287947698177)
ऐसा अधिकारी और उसके अधीनस्थ स्टाफ स्टोर, दवा, उपचार उपलब्धता से लेकर छत, टोंटी, सफाई तक की समस्त प्रशासनिक व्यवस्थाएं देखे। वह सीधे संभागीय आयुक्त/ जिला कलक्टर/ उपखंड अधिकारी के नियंत्रण में कार्य करे। जांच और कार्रवाई की कार्यालय अध्यक्ष तुल्य शक्तियों वाली यह व्यवस्था निस्संदेह सरकारी अस्पतालों में व्यवस्थागत तस्वीर बदल देगी। तब ना तो जेकेलोन जैसे बिना किवाड़-खिड़की से आई ठंड से बच्चे मरेंगे और ना अलवर जैसे वार्मर से झुलसेंगे। व्यवस्थाएं संभालने में वर्षों से नाकाम साबित हो रहे चिकित्सकों की इस आपत्ति को बेशक दरकिनार किया जाना चाहिए। आखिर, अपने निजी अस्पतालों में वे खुद भी तो प्रबन्धन अधिकारी अलग नियुक्त करते ही हैं, तो सरकारी अस्पतालों में सुधार से ईर्ष्या क्यों? हां, जिन चिकित्सकों की इसमें रुचि है वे विभागीय अंक लाभ के साथ तय चयन प्रक्रिया में हिस्सा लेकर पदासीन हो सकते हैं।
आखिर, जनसंख्या के रूप में किसी के जीवन को राष्ट्र ने स्वीकार कर लिया है तो ईश्वर प्रदत्त आयु 100 वर्ष तक उसकी निर्बाध यात्रा सरकारों की जिम्मेदारी होनी ही चाहिए।  #KotaTragedy #KotaChildDeath #KotaKeDoshi

#DhitendraSharma
 dhitendra.sharma@gmail.com/
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Twitter @dhitendrasharma   

2 comments:

Sunil mishra said...

आपने अच्छा लिखा है। मैनेजमेंट की व्यवस्था अलग से हो, लेकिन विशेषज्ञ डॉक्टरों की अनदेखी भी नहीं होनी चाहिए। किन दवाइयों और चिकित्सकीय उपकरणों की जरूरत को वे ही अच्छी तरह से बता पाएंगे।
सलाह:लेख में कई अशुद्धियां हैं, आंकड़े भी सही नहीं हैं। मसलन खर्च का आंकड़ा। लिखने के बाद पोस्ट करने से पहले इसका ध्यान रखना जरूरी है। इसे दुबारा पढ़कर सही कर दें। धन्यवाद
सुनील मिश्रा

Unknown said...

अब प्रशासनिक अधिकारी सिर्फ पद का दृपयोग करने के लिए बनते हैं रिश्वत के लिए

खुल्ला बोल: ब्राह्मण की पहचान फरसा या वेद!

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