संदर्भ- 17 जनवरी: पुण्यतिथि पर स्मरण
-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-यह बात वर्ष 2000-2002 की थी। करीब पौने दो साल मेरा वास्ता प्रत्यक्ष रूप में केसरगढ़ के पांच नंबर कमरे से रहा। संभवत: पत्रकारिता के दर्शन के वे स्वर्णिम क्षण थे। इससे पहले 20 अगस्त 1999 से कर्म स्थली के रूप में केसरगढ़ की दहलीज को नमन कर राजस्थान पत्रिका परिवार के सदस्य बनने पर प्रशिक्षु पत्रकार के नाते हमारा वास्ता बाबू साहब (कुलिशजी)से इतना ही था कि वे इस संस्थान के मालिक हैं। दूर से ही दर्शन होते। पास जाने से हम बचते भी थे। वरिष्ठजनों के बताए संस्मरणों से उनके बारे जो कुछ पता चलता और 22-23 वर्षीय नवयुवक के मन में प्राय: जितना ठहर पाता है, उतना ही मेरे मन में ठहरता था। 'अटूट परिवार' के संस्कारों के बावजूद तत्समय 'नौकरी भाव' की आहट अन्यान्य (पुराने नहीं) कर्मचारियों के संवाद से महसूस होने लगी थी। हमें भी अपने कॅरियर की चिंता तो रहती ही थी। खैर, सारी उधेड़बुन और 'स्वर्ण घिसाई' में कब सुबह के नौ बजे से (इसी समय तत्समय प्रशिक्षुओं की क्लास लगती थी।) रात के एक या दो बज जाते, पता ही नहीं चलता था। न थकान, न शिकन। सभी वरिष्ठों का स्नेह लघुभ्रात तुल्य। सुबह शाम खाने की पूछना शायद ही कोई भूलता। यह सब देख हम संस्थापक विभूति को समझने की कोशिश करते थे। पुस्तकालय में अधिकाधिक समय गुजारना तब अनुशासनिक अनिवार्यता थी। कड़ाई से इस नियम की पालना भी होती। वरिष्ठजन कहते, लाइब्रेरी में पढऩा भी ड्यूटी ही है मेरे भाई। देशभर के समाचार-पत्रों पर नजर मारने के बाद बचे समय में पुस्तकें वहीं मिल जाती। लिहाजा, धारा प्रवाह केसरगढ़ की लाइब्रेरी में कई मर्तबा पढ़ी। जितना उससे समझ पाए उतना आत्मसात किया।
करीब एक वर्ष बाद प्रशिक्षुकाल में ही मेरी ड्यूटी संपादकीय पृष्ठ पर लगा दी गई। यूं ही अचानक। हम रोज की तरह सुबह की कक्षा और दोपहर के भोजन के बाद (तारीख ध्यान नहीं) केसरगढ़ पहुंचे थे, पांच नंबर कमरे के पास के दरवाजे से ही गार्ड एंट्री करते थे। अचानक कोचर साहब(मोतीचंदजी कोचर, तत्कालीन संपादक) ने आवाज लगाई, "ऐ ऐ...(इशारे से) इधर आना।" मैं तब पहली बार पांच नंबर में गया। यूं भी इस कमरे का बुलावा आने का सीधा मतलब होता था कि 'क्लास' लगने वाली है। उन्होंने स्वभावगत दो टूक पूछा, "ट्रांसलेशन तुम ही करते हो ना बलराज मेहता की।" " हां सर," मैंने जवाब दिया। "आपका ट्रांसफर कर दिया है मैंने, कल से यहां 10 बजे आ जाना। पाटनीजी मिलेंगे। एडिट पेज पर काम करना है। कोई दिक्कत?" मैंने कहा, "जी नहीं।"
बस इसी दिन से श्रद्धेय प्रणय रंजन तिवारीजी और ज्ञानचंदजी पाटनी का सानिध्य शुरू हुआ, बाद में करीब सवा वर्ष श्रद्धेय स्व. शाहिद मिर्जा साहब का सानिध्य यहीं मिला। अंग्रेज़ी से हिंदी में भाषानुवाद और भावानुवाद की सीख इन दोनों महानुभावों तिवारीजी और मिर्जा सा. से मिली। और, इस सबसे बड़ी बात कि इन पौने दो साल में वो अनुपम संवाद सुने जिन्होंने जीवन की दिशा और दृढ़ता तय कर दी। वे सारी शंकाएं काफूर हो गईं जो तत्समय दस्तक देने लगी थी। कई विभूतियों के संवाद का समय लगभग तय रहता था। सुबह कोचर साहब का ठीक 10 बजे आना। फिर 12 बजे बड़े भाईसा (गुलाबजी कोठारीसा.) का उनसे संवाद। उसके बाद मिलाप भाई सा., डॉ. गौरी शंकर जी, विजय भंडारी साहब, आदि की गूढ़ चर्चाओं का श्रवण मटकी को तराशता गया।
शाम को ठीक 4 बजे के आसपास बाबूसाहब(संस्थापक श्रद्घेय कुलिशजी) का आना होता था। आते ही गूढ़ वेद-विज्ञान की चर्चाएं शुरू हो जाती थी। साथ में पोळमपोळ का लेखन भी नियमित। मैं यह सब सुनता-देखता रहता था। चार पंक्तियों की 'पोळमपोळ' बाबू साहब खुद 'भायाजी' के नाम से लिखते। व्यवस्था यह थी कि बाबू साहब चिंतन के साथ लिखते, टाइप होने ऊपर लाइनों सेक्शन में जाता, लौट के कोचर साहब के पास आता। बाबू साहब उनकी ओर देखते, इस बीच लेखन भी शुरू रहता था। कोचर साहब के इशारे और मनोभाव मात्र पढ़कर (जैसा में समझ पाया) बाबूसाहब कुलिशजी पुन: लेखन कर्म जारी रखते थे। चिंतन-लेखन में ऐसा बहुत ही कम हुआ कि एक-दो ही 'पोळमपोल' लिखी गई हो। आधा दर्जन से अधिक ये लिखी जाती थी। जब कोचर साहब इसे 'ओके' कर देते, तब क्रम थमता। सभी उच्चकोटि की होने के बावजूद अंतिम प्रकाशन उसी का होता जिस पर कोचर साहब मुहर लगाते। शेष लेखन रिकॉर्ड में लाइब्रेरी में चला जाता। कोचर साहब पीयूष जी जैन साहब (तब के सेंट्रल डेस्क इंचार्ज, जिनकी हैसियत सभी स्थानीय संपादकों से ज्यादा थी) को फाइनल पर्ची पकड़ा देते। तब तक पौने छह या छह बज चुके होते थे। बस यही समय उन दोनों का केसरगढ़ से साथ-साथ निकलने का वक्त होता था। मैं अचंभित रहता था कि मालिक के लिखे हुए को संपादक की सहमति न मिलने पर मालिक लगातार लेखन क्रम जारी रखे हुए है। #असहमति_की_स्वीकार्यता का अद्भुत दर्शन। संपादक का भी साहस कि अपना निर्भीक स्वतंत्र मत रखते। खुद एक वरिष्ठ साथी ने मुझे बताया कि एक बार संपादकीय पेज पर जाने वाला बाबू साहब का लिखा एक लीड आर्टिकल उन्हें थोड़ा खटका तो उन्होंने अपनी बात कही, बाबू साहब ने सहर्ष उसे रुकवा दिया।
पौने दो साल में कुछ माह बाद में ऐसे भी आए जब बाबू साहब का स्वास्थ्य गड़बड़ाया। कमजोरी के चलते पांच नंबर कक्ष की देहरी चढऩे में दिक्कत होने लगी। मेरी टेबल दरवाजे के निकटतम होने से उन्हें छूकर, हाथ पकड़कर अन्दर तक लाने का सौभाग्य मिला। अक्सर पाटनी जी या मुझे यह अवसर मिलता। ऐसा कई माह में हुआ। एक अद्भुत तेज था उनके शरीर में। आज भी महसूस होता है जैसे वो छूना ज्योतिर्लिंग छूने जैसा था। और, शायद यही वजह है कि #अहसहमति_की_स्वीकार्यता और किसी के भी सामने अपना #स्पष्ट_मत रखने, दोनों तरह का साहस उन विभूतियों से मैं आत्मसात कर पाया। बाबू साहब 17 जनवरी 2006 को गोलोकवासी हो गए।
आज, 'यस बोस'की संस्कृति में आकंठ ढल चुके संपादकों/पत्रकारों और राजनेताओं के लिए कुलिशजी का पत्रकारीय दर्शन एक प्रासंगिक पाठशाला है, इन्हें इनसे अवश्य सीखना चाहिए। #KCK, #KarpoorChandraKulish
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Youtube channel- sujlam suflam
1 comment:
कुलिश जी अतुलनीय थे। बहुत सही कहा।
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