Monday, February 24, 2020

#Journalism: डीजे संगीत और मीडिया की आजादी



-धीतेन्द्र कुमार शर्मा -
गुजरी शनिवार रात राजस्थान के एक प्रतिष्ठित मीडिया समूह के स्वामित्व वाले जयपुर स्थित परिसर में #राजस्थानपुलिस ने 10 बजे बाद डीजे संगीत बजने की बात पर कार्रवाई कर दी। सिविल लाइंस स्थित इस परिसर में बकौल मीडिया समूह(जैसा उन्होंने बहादुरी से खुद के समाचार पत्र में प्रकाशित भी किया) बैंक मालिक के अतिथि व परिजन जन्मदिन पार्टी मना रहे थे। पुलिस  पर कमरों तक अवांछित दखल और अभद्रता का आरोप है, साथ ही #मीडिया_की_आजादी पर हमला भी बताया गया। खबर के समर्थन में लिखे गए तर्कों में यह भी शुमार किया गया कि क्षेत्र में अन्य मैरिज गार्डन भी हैं जिनमें देर रात तक डीजे बजता है लेकिन कार्रवाई नहीं होती। आरोप लगाया गया कि मीडिया समूह की खबरों पर प्रतिक्रिया स्वरूप राज्य सरकार की शह पर यह कार्रवाई की गई।
 इस प्रतिष्ठित मीडिया समूह के कानून और सिद्धांत से जुड़े तीन किस्से मुझसे भी प्रत्यक्ष जड़े हैं। वर्ष 2007-08 की बात रही होगी। मैं इसके भरतपुर ब्यूरो प्रमुख का दायित्व निभा रहा था। इसी दौरान वहां ट्रेड फेयर लगा। मेला चल रहा था कि दो-तीन दिन बाद बिजली विजिलेंस से जुड़े अधिकारी पहुंच गए। वहां ठेकेदार बिजली चोरी करते पाया गया। तत्समय समूह की प्रतिष्ठा धवल और छवि अकाट्य थी। विद्युत जेईएन का मेरे पास तुरंत फोन आया। मैंने उच्च स्तर पर अवगत कराया। वहां से बिना समय गंवाए निर्देश मिले कि चालान कटवाया जाए, साथ ही ठेकेदार को भी हिदायत मिली कि हमारे साथ एसोएिशन में कानून की पालना तो करनी ही होगी।

दूसरा उदाहरण राजस्थान के ही पाली शहर का है। तत्समय पत्रकारिता के प्रतिमानों और सिद्धांतों के कठोर संरक्षण के चलते मुझे भरतपुर से 2010 में पाली स्थानीय संपादक बना दिया गया। वहां फिर ट्रेड फेयर लगा। एक दिन अचानक सिविल पोषाक में तत्कालीन पुलिस अधीक्षक मेले में पहुंच गए। झूले वाले से लाइसेंस/अनुमति की पड़ताल भी कर ली। लाइसेंस अनुमति न होने की बात सामने आने पर उन्होंने इसे बंद करा दिया। साथ ही मुझे संदेश भिजवाया और विनम्रता से अगले दिन प्रक्रिया पूरी कर झूला चलवाने को कहा। मैंने जयपुर उच्चधिकरियों को अवगत कराया। उन्होंने स्पष्टत: कानून का पालन करने की हिदायत मेला ठेकेदार को दिलवा दी। लाइसेंस प्रक्रिया में प्रशासन का सहयोग भी मिला।

और तीसरा रोचक किस्सा ट्रेनी काल का वर्ष 1999 का है। हमारा एक बैच मैट अजमेरी गेट पर रोड रैलिंग अवैध तरीके से पार करता हमारे तत्कालीन संपादकीय अधिकारी ने देख लिया। उन्होंने समूह की प्रतिष्ठा पर ही उस दिन की पूरी क्लास ली। साथ ही उस प्रशिक्षु को निकालने की तल्ख चेतावनी भी दे दी। संदेश स्ष्ट था कि कानून के उल्लंघन की अंगुली हमारी ओर नहीं उठनी चाहिए। यह साख का सवाल है, यही हमारी पूंजी है।

बस गुजरे वर्षों में मीडिया जगत की गंगा से इतना ही पानी उतरा है। तब कानून सर्वोच्च था, अब अन्य किसी के उल्लंघन की आड़ स्वयं के भी उल्लंघन के लिए तर्क का आधार मानी जा रही। यही नहीं, तब कोई समाचार नहीं छपा, सब कुछ कुशलमंगल रहा। प्रशासन में प्रतिष्ठा और बढ़ी।

कानून से ऊपर  आजादी क्यों? 

बात मीडिया की आजादी की है। तो कानून से ऊपर किसे आजादी मिलनी चाहिए और क्यों? मीडिया तो समाज का पथ प्रदर्शक है, स्वयं आचरण पेश कर अन्य पर कार्रवाई के लिए प्रशासन को मजबूर करे। रात 10 बजे बाद डीजे बंद होना है तो बंद होना ही चाहिए। मेरे प्रभावी सेवाकाल के दौरान परिवार के तीन विवाह समारोहों में हमने 10 बजे बाद डीजे बंद करा दिया।

एक और बात, मीडिया समूह के व्यापारिक दृष्टिकोण में डीजे संगीत की आवश्यकता कहां है, इस पर एडिटर्स गिल्ड, पत्रकारिता से जुड़े संगठनों, प्रेस काउंसिल और सरकार को भी  मंथन करना चाहिए। कुछ वर्ष पहले एक इलेक्ट्रोनिक चैनल पर भी वित्तीय अनियमितता पर कार्रवाई को मीडिया पर हमला बताया गया। हालांकि, जनता ने उसे किस पायदान पर खड़ा कर दिया, और आज सबसे तेज कौन है, यह सबके सामने है। कुछ माह पहले एक और चैनल के मालिक पर कार्रवाई हुई, वहां भी वित्तीय अनियमितता का मसला था।

 चौतरफा शुचिता की जरूरत 

असल में, अब वक्त है उस आंदोलन को गति देने की जिसका आगाज अन्ना हजारे ने आजादी की दूसरी लड़ाई के संबोधन के साथ यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में किया था। जिसकी उपज अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी है। अब चौतरफा शुचिता की जरूरत है। किसी को भी दग्ध धवल मानने की आवश्यकता नहीं। स्वच्छता की अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण होना सबके लिए अनिवार्य हो। भले ही मीडिया ही क्यों न हो। संविधान और कानून हम सबने स्वीकार किया है, #'हम_भारत_के_लोग' में मीडिया भी शामिल है। कुछ आचार संहिता तो अवश्य बने। मीडिया से इतर अन्य व्यापार-व्यवसाय में मीडिया का इस्तेमाल करने की लक्ष्मण रेखा भी तय हो ही।

 हां, पुलिस के द्वारा अभद्रता करने वाले आरोपों की जांच जरूर निष्पक्ष होनी ही चाहिए, पुलिस को यदि कोई डीजे के अतिरिक्त भी अन्य इनपुट था जिसके आधार पर तलाशी ली गई तो इसका खुलासा जनता के बीच सार्वजनिक करना चाहिए अन्यथा बेजा दखलंदाजी पर महकमा बिना शर्त माफी मांगे। फिर वही बात दोहरानी होगी, कानून सबके लिए समान है, पुलिस के लिए भी और मीडिया के लिए भी।
जय हिन्द।

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Thursday, January 16, 2020

श्रद्धांजलि: कुलिशजी असहमति की स्वीकार्यता के पुरोधा, नेता-पत्रकार सीखें


संदर्भ- 17 जनवरी: पुण्यतिथि पर स्मरण

-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-
यह बात वर्ष 2000-2002 की थी। करीब पौने दो साल मेरा वास्ता प्रत्यक्ष रूप में केसरगढ़ के पांच नंबर कमरे से रहा। संभवत: पत्रकारिता के दर्शन के वे स्वर्णिम क्षण थे।  इससे पहले 20 अगस्त 1999 से कर्म स्थली के रूप में केसरगढ़ की दहलीज को नमन कर राजस्थान पत्रिका परिवार के सदस्य बनने पर प्रशिक्षु पत्रकार के नाते हमारा वास्ता बाबू साहब (कुलिशजी)से इतना ही था कि वे इस संस्थान के मालिक हैं। दूर से ही दर्शन होते। पास जाने से हम बचते भी थे। वरिष्ठजनों के बताए संस्मरणों से उनके बारे जो कुछ पता चलता और  22-23 वर्षीय नवयुवक के मन में प्राय: जितना ठहर पाता है, उतना ही मेरे मन में ठहरता था। 'अटूट परिवार' के संस्कारों के बावजूद तत्समय 'नौकरी भाव' की आहट अन्यान्य (पुराने नहीं) कर्मचारियों के संवाद से महसूस होने लगी थी। हमें भी अपने कॅरियर की चिंता तो रहती ही थी। खैर, सारी उधेड़बुन और 'स्वर्ण घिसाई' में कब सुबह के नौ बजे से (इसी समय तत्समय प्रशिक्षुओं की क्लास लगती थी।) रात के एक या दो बज जाते, पता ही नहीं चलता था। न थकान, न शिकन। सभी वरिष्ठों का स्नेह लघुभ्रात तुल्य। सुबह शाम खाने की पूछना शायद ही कोई भूलता। यह सब देख हम संस्थापक विभूति को समझने की कोशिश करते थे। पुस्तकालय में अधिकाधिक समय गुजारना तब अनुशासनिक अनिवार्यता थी। कड़ाई से इस नियम की पालना भी होती। वरिष्ठजन कहते, लाइब्रेरी में पढऩा भी ड्यूटी ही है मेरे भाई। देशभर के समाचार-पत्रों पर नजर मारने के बाद बचे समय में पुस्तकें वहीं मिल जाती। लिहाजा, धारा प्रवाह केसरगढ़ की लाइब्रेरी में कई मर्तबा पढ़ी। जितना उससे समझ पाए उतना आत्मसात किया।

     करीब एक वर्ष बाद प्रशिक्षुकाल में ही मेरी ड्यूटी संपादकीय पृष्ठ पर लगा दी गई। यूं ही अचानक। हम रोज की तरह सुबह की कक्षा और दोपहर के भोजन के बाद (तारीख ध्यान नहीं) केसरगढ़ पहुंचे थे, पांच नंबर कमरे के पास के दरवाजे से ही गार्ड एंट्री करते थे। अचानक कोचर साहब(मोतीचंदजी कोचर, तत्कालीन संपादक) ने आवाज लगाई, "ऐ ऐ...(इशारे से) इधर आना।" मैं तब पहली बार पांच नंबर में गया। यूं भी इस कमरे का बुलावा आने का सीधा मतलब होता था कि 'क्लास' लगने वाली है। उन्होंने स्वभावगत दो टूक पूछा, "ट्रांसलेशन तुम ही करते हो ना बलराज मेहता की।" " हां सर," मैंने जवाब दिया। "आपका ट्रांसफर कर दिया है मैंने, कल से यहां 10 बजे आ जाना। पाटनीजी मिलेंगे। एडिट पेज पर काम करना है। कोई दिक्कत?" मैंने कहा, "जी नहीं।"

     बस इसी दिन से श्रद्धेय प्रणय रंजन तिवारीजी और ज्ञानचंदजी पाटनी का सानिध्य शुरू हुआ, बाद में करीब सवा वर्ष श्रद्धेय स्व. शाहिद मिर्जा साहब का सानिध्य यहीं मिला। अंग्रेज़ी से हिंदी में भाषानुवाद और भावानुवाद की सीख इन दोनों महानुभावों तिवारीजी और मिर्जा सा. से मिली। और, इस सबसे बड़ी बात कि इन पौने दो साल में वो अनुपम संवाद सुने जिन्होंने जीवन की दिशा और दृढ़ता तय कर दी। वे सारी शंकाएं काफूर हो गईं जो तत्समय दस्तक देने लगी थी। कई विभूतियों के संवाद का समय लगभग तय रहता था। सुबह कोचर साहब का ठीक 10 बजे आना। फिर 12 बजे बड़े भाईसा (गुलाबजी कोठारीसा.) का उनसे संवाद। उसके बाद मिलाप भाई सा.,  डॉ. गौरी शंकर जी, विजय भंडारी साहब, आदि की गूढ़ चर्चाओं का श्रवण मटकी को तराशता गया।

      शाम को ठीक 4 बजे के आसपास बाबूसाहब(संस्थापक श्रद्घेय कुलिशजी) का आना होता था।  आते ही गूढ़ वेद-विज्ञान की चर्चाएं शुरू हो जाती थी। साथ में पोळमपोळ का लेखन भी नियमित। मैं यह सब सुनता-देखता रहता था। चार पंक्तियों की 'पोळमपोळ' बाबू साहब खुद 'भायाजी' के नाम से लिखते। व्यवस्था यह थी कि बाबू साहब चिंतन के साथ लिखते, टाइप होने ऊपर लाइनों सेक्शन में जाता, लौट के कोचर साहब के पास आता। बाबू साहब उनकी ओर देखते, इस बीच लेखन भी शुरू रहता था। कोचर साहब के इशारे और मनोभाव मात्र पढ़कर (जैसा में समझ पाया) बाबूसाहब कुलिशजी पुन: लेखन कर्म जारी रखते थे। चिंतन-लेखन में ऐसा बहुत ही कम हुआ कि एक-दो ही 'पोळमपोल' लिखी गई हो। आधा दर्जन से अधिक ये लिखी जाती थी। जब कोचर साहब इसे 'ओके' कर देते, तब क्रम थमता। सभी उच्चकोटि की होने के बावजूद अंतिम प्रकाशन उसी का होता जिस पर कोचर साहब मुहर लगाते। शेष लेखन रिकॉर्ड में लाइब्रेरी में चला जाता। कोचर साहब पीयूष जी जैन साहब (तब के सेंट्रल डेस्क इंचार्ज, जिनकी हैसियत सभी स्थानीय संपादकों से ज्यादा थी) को फाइनल पर्ची पकड़ा देते। तब तक पौने छह या छह बज चुके होते थे। बस यही समय उन दोनों का केसरगढ़ से साथ-साथ निकलने का वक्त होता था। मैं अचंभित रहता था कि मालिक के लिखे हुए को संपादक की सहमति न मिलने पर मालिक लगातार लेखन क्रम जारी रखे हुए है। #असहमति_की_स्वीकार्यता का अद्भुत दर्शन। संपादक का भी साहस कि अपना निर्भीक स्वतंत्र मत रखते।  खुद एक वरिष्ठ साथी ने मुझे बताया कि एक बार संपादकीय पेज पर जाने वाला बाबू साहब का लिखा एक लीड आर्टिकल उन्हें थोड़ा खटका तो उन्होंने अपनी बात कही, बाबू साहब ने सहर्ष उसे रुकवा दिया।
पौने दो साल में कुछ माह बाद में ऐसे भी आए जब बाबू साहब का स्वास्थ्य गड़बड़ाया। कमजोरी के चलते पांच नंबर कक्ष की देहरी चढऩे में दिक्कत होने लगी। मेरी टेबल दरवाजे के निकटतम होने से उन्हें छूकर, हाथ पकड़कर अन्दर तक लाने का सौभाग्य मिला। अक्सर पाटनी जी या मुझे यह अवसर मिलता। ऐसा कई माह में हुआ। एक अद्भुत तेज था उनके शरीर में। आज भी महसूस होता है जैसे वो छूना ज्योतिर्लिंग छूने जैसा था। और, शायद यही वजह है कि #अहसहमति_की_स्वीकार्यता और किसी के भी सामने अपना #स्पष्ट_मत रखने, दोनों तरह का साहस उन विभूतियों से मैं आत्मसात कर पाया। बाबू साहब 17 जनवरी 2006 को गोलोकवासी हो गए।
      आज, 'यस बोस'की संस्कृति में आकंठ ढल चुके संपादकों/पत्रकारों और राजनेताओं के लिए कुलिशजी का पत्रकारीय दर्शन एक प्रासंगिक पाठशाला है, इन्हें इनसे अवश्य सीखना चाहिए। #KCK, #KarpoorChandraKulish

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Saturday, January 11, 2020

अनुभवहीनों को ही चौंकाता है पुलिस-अपराधी गठजोड़

                                                                                                        फ़ोटो साभार : राजस्थान पत्रिका ई पेपर


संदर्भ-  #रणवीरचौधरीहत्याकांड से पहले बर्थडे पार्टी


-धीतेन्द्र कुमार शर्मा-
कुछ वर्ष पहले कोटा जिले के चेचट थाने में एक युवक को नशेड़ी कहकर बार-बार थाने बुलाने पर उसने शहर में रहने वाले अपने काकाजी को बताया। संभ्रांत पेशे से जुड़े काकाजी ने थाने में संपर्क कर अपना और युवक का पक्ष रखा। थाने से रिस्पांस तो मिला लेकिन युवक को एक-दो दिन बाद फिर बुला लिया गया। ऐसे में काकाजी ने खुद थाने पहुंचकर बात करने का तय किया। काकाजी 70 किमी दूर थाने पहुंचे तो पुलिसकर्मियों का खास रिस्पॉन्स नहीं था। इसी दौरान थाने में मंडरा रहे गांव के नंबरी लोगों ने काकाजी को पहचान लिया। एक पुराना शातिर जो खुद अब बुजुर्ग हो गया था, कुछ देर काकाजी से बात करता रहा। एक युवक ने ढोक देकर टिप्पणी की कि "काकाजी तो काकाजी ही हैं।" यह सब देख पुलिसकर्मी अचरज में थे। पुराने शातिर से जिज्ञासावश कुछ ने पूछ लिया। उसने बताया कि "ये पुराने बोस रहे हैं यहां के। सब कुछ निपटाकर शहर चले गए, वहीं शांति से रहते हैं। " इसके बाद पुलिसकर्मियों का रुख बदल गया। रिस्पॉन्स के साथ ही युवक को थाने बुलाने के झंझट से भी मुक्ति मिल गई। #रणवीरचौधरीहत्याकांड में जिन गैंगवार का जिक्र इन दिनों हो रहा है उनमें एक प्रकरण इस थाने का भी है। 25 अप्रेल 2011 को गैंगस्टर रमेश जोशी की 40 से ज्यादा गोलियां मारकर हत्या की गई थी। थाने के स्टाफ की भूमिका इस केस में भी लोगों की नजर में असंदिग्ध न तब थी और ना ही आज। आरोपी एक रात पहले से कस्बे में जमा थे। कुछ तो एक-दो दिन से तैयारी में थे।

     गुजरे 14 दिसंबर को मैं अपने निकट रिश्तेदार के साथ कोटा के उद्योग नगर थाने में बाइक देखने गया तो चोरी की बाइक पड़ी होने वाले स्थान पर (मालखाने) झुंड बनाकर कुछ युवक कुर्सियों पर बैठे थे। हम दोनों को देख एकदम खड़े होकर नमस्कार किया। बैठने का आग्रह भी। हमारे माजरा बताने पर वे शंकालु बैठे। अनुभव के आधार पर मैं दावा कर सकता हूं कि वे आम सदाशय नागरिक निश्चित ही नहीं थे। तो फिर उनका थाने में क्या काम? थाना तफरीहगाह तो होता नहीं। कोटा शहर अथवा बाहर भी किसी भी थाने में चले जाइये, आपको युवाओं का समूह अनावश्यक घूमता मिल जाएगा। कौन हैं ये, खबरी के नाम पर थानों में मंडराने वाले?

      जनाब! रणवीर चौधरी की हत्या वाले दिन 22 दिसंबर को भले ही एक पुलिस अधिकारी के फॉर्म हाउस पर आयोजित पार्टी में गैंगस्टर्स और पुलिस अफसर, पुलिसकर्मी शामिल हुए लेकिन यह खुलासा अनुभवहीनों को ही चौंकाता है। पुलिस-अपराधी गठजोड़ से वास्ता रोजमर्रा में आम नागरिक का जितना पड़ता है, शायद चंद लोगों से घिरे इन तथाकथित तजुर्बेकारों का नहीं। पार्टी में शामिल पुलिसकर्मियों के हत्या की साजिश में शामिल होने के नतीजे पर पहुंचने की इजाजत मेरा विवेक नहीं देता लेकिन इतना तय है कि इससे पुलिस-अपराधी-मुखबिरी के गठजोड़ की एक और तस्वीर सेल्फी स्टाइल में मार्केट में आ गई। दस वर्ष पहले भरतपुर में पदस्थापन के दौरान अक्सर सुबह और शाम को जब मैं अपने फोटोग्राफर साथी के साथ शहर में घूमने निकलता था, तब मथुरागेट थाने के दो-तीन पुलिसकर्मी हमें गलियों में अक्सर मिल ही जाते थे। कथित मुखबिरी और सट्टे पर कार्रवाई के नाम पर। अनौपचारिक बातचीत में वे सब खर्ची निकालने की बात मानते ही थे।

       दरअसल, वर्दीवाला गुंडा, गंगाजल, सहर, वास्तव, गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी तमाम फिल्में कपोल-काल्पनिक नहीं हैं। इनमें गैंगस्टर्स और पुलिस का गठजोड़ समाज और सिस्टम में स्थापित तथ्य ही है। मुखबिरी की स्वीकार्य व्यवस्था के अंग के रूप में आपराधिक तत्व पुलिस से जुड़ाव रखने लगते हैं। यूं भी शरीफ आदमी क्यों मुखबिरी करने लगा भला बदमाशों या बड़े गैंगस्टर्स की। बस, यहीं इनके रसूखात मजबूत होते जाते हैं। दशकों पुरानी व्यवस्था तो अब पुलिस सिस्टम में प्राणवायु तुल्य हो गई है। जमीनी पुलिसकर्मियों में आत्म असुरक्षा का भाव, न्याय में देरी, गंभीर अपराधों में जमानत अथवा साक्ष्य/गवाह पक्षद्रोही होने की स्थिति में बरी होने और बदमाशों के खुले घूमने जैसे कई गंभीर कारण हैं इन संबंधों के पीछे। स्वयं और परिवार को राजकीय वेतन से अतिरिक्त आर्थिक मजबूती देने की लालसा भी बड़ी वहज है। राजस्थान के पुलिस महानिदेशक तो थानों तक में सफाई की बात कह चुके। लेकिन सफाई करे कौन?  कैसे करे। मुखबिरी का वैकल्पिक स्वच्छ तंत्र कहां से लाएं।

हो सकते हैं ये तीन काम

तीन काम हो सकते हैं। जिन्हें मैं अक्सर विभिन्न मंचों पर कहता रहता हूं।

इंटेलिजेंस विंग तैयार करें: पुलिस खुद अपनी इंटेलिजेंस विंग तैयार करे। ठीक मिलिट्री इंटेलिजेंस की तर्ज पर। ऐसे में मुखबिरों की व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी और इस दरवाजे से थानों में दखल रखने वाले अपराधियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा सकेगा। यह व्यवस्था कानून-व्यवस्था बनाए रखने में मददगार हो सकेगी। आलोचक कह सकते हैं कि इंटेलिजेंस ब्यूरो से काम लिया जाए, वहां से इनपुट आते हैं लेकिन पुलिस ध्यान नहीं देती। उनको कहना चाहूंगा कि इसीलिए पुलिस की खुद की विंग अधिक कारगर होगी।

इंवेस्टीगेशन एजेन्सी अलग बने: पुलिस सिस्टम में आमूल बदलाव हो। पुलिस का काम सिर्फ सुरक्षा-व्यवस्था ही रहे। इंवेस्टीगेशन एजेन्सी अलग बने। अपराध रोकना ही पुलिस का काम हो। अपराध घटित होने के बाद उनकी भूमिका समाप्त। नई एजेन्सी जांच व आरोप पत्र के साथ ही अभियोजन विभाग के साथ मिलकर आगे का काम देखे। इससे जांच के नाम पर भ्रष्टाचार पर नकेल कसेगी, अपराध घटित होने पर थानों को जवाबदेह बनाया जाए। सुरक्षा में चूक मानते हुए संबंधित थाने के पुलिस प्रभारी अधिकारी को कार्रवाई फेस करनी पड़े, ठीक सैन्य बलों की तर्ज पर।

गैंगवारी में जल्द फैसले: हत्या जैसे जघन्य और गैंगस्टर्स से जुड़े मामलों में दुष्कर्म मामलों की तर्ज पर जल्द फैसले होने लगें। अमूमन एक गैंगस्टर का दौर एक से डेढ़ दशक रहता है। अपवाद अवधि कम-ज्यादा हो सकती है। ऐसे में जल्द फैसलों से इनका दौर सीमित और अंत जल्द होने से ईमानदार पुलिसकर्मियों को फील्ड के व्यावहारिक दबाव से मुक्ति मिल सकेगी।

सारत: पुलिस अपराधी गठजोड़ तोडऩे के लिए रीढ़ पर चौतरफा मार करनी होगी। इसके लिए क्या हमारी केन्द्र व राज्य सरकारें 56 इंची सीना रखती हैं। नहीं, तो ऐसे ही साजिशन हत्या से पहले की बर्थडे पार्टियों की नई स्टाइल की तस्वीरें सामने आती रहेंगी। गठजोड़ के कंधों की बदौलत कड़ी सुरक्षा के बीच लाए जा रहे भानुप्रताप जैसे गैंगस्टरों की फूलप्रूफ षड्यंत्रों के साथ हत्याएं (18-19 अप्रेल 2011 की रात) होती रहेंगी। और सबक के तौर पर आशंका में राजू ठेहट (सीकर कोर्ट में 10 जनवरी 2020 को लाए) जैसे अपराधियों को बुलेट प्रूफ जैकेट में लाने की कथित मजबूरियां भी पेश आती रहेंगी।

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Wednesday, January 8, 2020

#सरस्वतीवंदना: देशवासियों को थोड़ा स्वाभिमान दे...


मां सरस्वती तू ऐसा वरदान दे, 
देशवासियों को थोड़ा स्वाभिमान दे,
बहती रगों में थोड़ा लहू दे तू डाल, 
चोट लगने पर नयनों में आए ज्वाल,
अपमानी बात से उबल जाए खून,
ऐसा प्रतिकार का सवार हो जुनून,
कंटकों के सीने में त्रिशूल तान दे, मां सरस्वती तू ऐसा वरदान दे.....।।


सात सुरों का अब दिखा दे तू कमाल, 
बच्चे-बच्चे को बना दे बाल-पाल-लाल,
राणा और सुभाष घर-घर जनमें, 
राष्ट्र स्वाभिमान की जो खाएं कसमें,
आतताइयों पर बन टूट पड़ें काल, 
प्रतिशोधी ज्वाला में निखारें मां का भाल,
वीणा-वादिनी तू छेड़ ऐसी तान दे, मां सरस्वती तू ऐसा वरदान दे...।।


वीणा के तारों को कुछ ऐसा झनकार, 
हिन्दुस्तानी हुंकारों से गूंजे संसार, 
नया इतिहास लिखने को बढ़ें हम, 
खोया हुआ पाने का जुटा लें दमखम,
केसर की क्यारियों को करे जो नापाक, 
ऐसी पाकिस्तानी लंका में लगा दे आग,
ब्रह्मचारिणी तू ऐसे हनुमान दे, मां सरस्वती तू ऐसा वरदान दे...।।


देख तेरे ये बेटे बने हैं जिन्दा लाश, 
छोड़ बैठे देशहित, बांधे स्वार्थ पाश,
भ्रष्टाचारियों का खुला साथ दे रहे, 
मां को भस्म करे ऐसी आग दे रहे, 
तोड़ें मोहपाश ये कुछ ऐसी लेवें ठान, 
भ्रष्टाचारियों को सूली पर देवें टांग,
हंसवाहिनी तू फूंक ऐसे प्राण दे, मां सरस्वती तू ऐसा वरदान दे....।।


-धीतेन्द्र कुमार शर्मा 

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Sunday, January 5, 2020

#JKLonHospitalKota: डॉक्टर नाकाम, अस्पतालों में बने अलग प्रशासनिक सेवा कैडर


 -धीतेन्द्र कुमार शर्मा
वर्ष 1974 से राजकीय शिक्षक के रूप में सेवाएं दे रहे मेरे पिताजी 1993 में जब राजस्थान लोक सेवा आयोग से अपने पांच मित्रों के साथ माध्यमिक विद्यालय प्रधानाध्यापक भर्ती परीक्षा में सफल होकर सवाईमाधोपुर जैसे तत्समय पिछड़े जिले में दूरस्थ आदिवासी बहुल गांवों में पदस्थापित हुए तो उन सभी ने एक ही सिद्धांत पर स्कूल संचालन किया कि यह प्रशासनिक पद है, व्यवस्थाएं संचालन प्रथम दायित्व है। स्कूल की टोंटी बदलने से छत टपकने तक पर उनका ध्यान रहता। तुरंत समाधान देना संकल्प। गांव वाले उनके इस सिद्धांत से प्रभावित होकर भक्त बनते चले गए।इसके बाद प्रधानाचार्य बनने और 2011 से 2015 के बीच सेवानिवृत्ति होने तक सभी ने इसी सिद्धांत पर स्कूलों का संचालन किया। कक्षा में पीरियड लेने के शिक्षण कार्य में वे तभी इन्वोल्व होते जब स्टाफ की कमी हो। इस सिद्धांत पर उन्हें विरोध का सामना भी करना पड़ता लेकिन वे स्पष्ट कहते, हम क्लास में पढ़ाएंगे तो बच्चों का ध्यान कौन रखेगा। वे सभी मित्र विभाग में सफलतम प्रधानाचार्यों में शुमार रहे जिनकी मुक्तकंठ से विरोधी उच्चाधिकारी भी तारीफ अब तक करते हैं। आप कहेंगे कि जेकेलोन में स्कूल संचालन कहां से आ घुसा। लेकिन, इस उदाहरण को अब जरा जेकेलोन अस्पताल कोटा या अन्य किसी भी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से लेकर बड़े अस्पताल के साथ जोड़कर देखें। रोजमर्रा में जो आमजन इनमें परेशानियों से रूबरू होता है, कथित भारसाधक अधिकारी से उसे जो निराशा हाथ लगती है उसे महसूस करें।

जनाब, कोटा के #जेकेलोनअस्पताल में 23 व 24 दिसंबर के दरम्यान हुई 10 बच्चों की मौत पर लोकसभा अध्यक्ष #ओमबिरला के ट्वीट और केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर के कांग्रेस नेता #राहुलगांधी पर कसे तंज के बाद मचे कोहराम को 10 दिन हो गए हैं। अव्यवस्थाओं पर उबल रही रक्तविहीन राजनीति में दलीय, प्रशासनिक, चिकित्सकीय, बाल संरक्षण जैसी अनेकानेक जांचें हो गई। मंत्रियों के सरकार बचाओ दौरे भी दनादन हुए। पक्ष-विपक्षी गुटीय वक्तव्य भी आए। उधर अस्पताल में बच्चों का मरना रोजमर्रा की तरह जारी है, पिछले 35 दिन में 110 का आंकड़ा हो गया।
अस्पताल में ही राजनीतिक जमावड़े में फोटो खिंचाती बेशर्म हंसी भी दिखी।

असल मसले पर चिंतन कम...

पूरा मीडिया भी कैमराजन्य अथवा शाब्दिक तल्खी के साथ इसी पर टीआरपी-रीडरशिप बढ़ाने की होड़ में जुटा लगता है। लेकिन असल मसले पर चिंतन कम ही दिख रहा।
#लोकसभास्पीकर के राजनीतिक ध्यानाकर्षण के बाद टूट पडऩे के भाव के साथ हुई मीडिया ट्रायल में ताबड़तोड़ हुए कथित खुलासों में व्यवस्थागत खामियां ही सामने आई हैं। यहां 28 में से 22 नेबुलाइजर खराब हैं, 111 में से 81 इंफ्यूजन पंप नाकारा, 101 में 28 मल्टी पैरा मॉनिटर, 38 में 32 पल्स ऑक्सीमीटर निकम्मे पड़े हैं। सेंट्रल ऑक्सीजन लाइन और अन्य उपकरणों के बारे में तो केन्द्रीय टीम ने मार्च 2019 में हुए निरीक्षण की रिपोर्ट में ही बता दिया था। इस टीम ने लेबर रूम और ऑपरेशन थिएटर में क्वालिटी कंट्रोल के लिहाज से अस्पताल प्रशासन को शून्य प्रतिशत अंक दिए।

हर शख्स भगवान के रूप में देखता है

यही नहीं, जमीनी सच और भी कड़वा है। गंदगी के ढेर, टपकती छतें, पानी पीने के स्थान बदहाल, टॉयलेट्स की तो बात करना ही बेमानी। अस्पताल में बच्चे उठाने और श्वान-सूअरों द्वारा भ्रूण नोंचने तक के उदाहरण मौजूद हैं। श्वान और सूअरों की यहां अति सहज आमदरफ्त रहती है।  यह सब उन सभी जिम्मेदारों की नजरों के सामने रोज होता है जिन्हें वहां आने वाला हर शख्स भगवान के रूप में देखता है, जी हां, भगवान के रूप में, भले ही वह काउंटर बैठकर पर्ची काटने वाला ऑपरेटर अथवा दवा वितरित करने वाला संविदाकर्मी ही क्यों न हो, लेकिन सभी इसे दरकिनार करते हैं।  ऐसा भी नहीं कि अस्पताल के खाते में पैसा न हो। हल्ले के बाद चिकित्सा मंत्री की बैठक में स्पष्ट हो गया कि ऑक्सीजन लाइन के लिए 28.80 लाख रुपए स्वीकृत हैं, अप्रेल में ही मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी ने 15 लाख रुपए ट्रांसफर भी कर दिए थे लेकिन साढ़े आठ लाख रुपए ही खर्च हो पाए। #राष्ट्रीयस्वास्थ्यमिशन में एक करोड़ रुपए बजट पड़ा है। आरएमआरएस में भी पैसा है लेकिन देखे और व्यवस्थाएं दुरुस्त करे कौन?

ऐसा नहीं कि यह सिर्फ कोटा के जेकेलोन अस्पताल में हो रहा है, एमबीएस में पर्ची बनने से पहले सीने में दर्द के युवा रोगी को न देखने और पत्नी के पर्ची लाइन में लगने के दौरान पति की मौत हो जाने के उदाहरण भी हैं। जिले अथवा प्रदेश के(अन्य प्रदेशों में भी) किसी भी सरकारी अस्पताल में चले जाएं, अपवाद को छोड़कर अव्यवस्थाओं का रैला मिल जाएगा। मौत पर कोटा में हल्ला मच रहा, जोधुपर, उदयपुर जयपुर राजधानी तक में ऑक्सीजन लाइन के हालात ठीक नहीं। झालावाड़ में इसी एक साल में 663 बच्चों की मौत हुई। किसे फुर्सत देखने की?

दरअसल, चिकित्सा सेवा में दुविधा औ द्वंद्व यह है कि चिकित्सक वरिष्ठ पदों पर अपने अहम तुष्टि के लिए आसीन भी होना चाहते हैं और अपनी रोजमर्रा में प्रेक्टिस से हटना भी नहीं चाहते। कहने को व्यवस्था देखने वाला पद भरा होता है लेकिन भारसाधक अधिकारी की उसमें रुचि नहीं होती। वे इसका तनाव नहीं लेना चाहते। उल्टे वरिष्ठता के साथ वे अपने निजी स्तर के अस्पतालों में मशगूल हो जाते हैं। राजकीय सेवा से कई गुना अधिक आय निजी प्रेक्टिस से होने के चलते स्थानांतरण पर नहीं जाना, वीआरएस जैसा दबाव बनाना इनकी परंपरा हो गई और सरकार चिकित्सा क्षेत्र की इन उलझी चुनौतियों में दिशाहीन महसूस होती है। नतीजतन, खामियाजा #कोटाजेकेलोनत्रासदी के रूप में सामने आता है।

राज्य व राष्ट्रव्यापी कवायद हो

पिताजी और मित्रों के स्कूल संचालन के सिद्धांत से इत्तेफाक रखते हुए मेरा स्पष्ट मत है कि प्रशासनिक पद पर आसीन व्यक्ति की सर्वोच्च प्राथमिकता सम्पूर्ण चाक-चौबन्द व्यवस्थाएं ही होना चाहिए। चूंकि स्कूल और अस्पतालों के हालात में जमीन-आसमान का अंतर है, अत: इसके लिए अलग सेवा कैडर बनाने पर अब राज्य व राष्ट्रव्यापी कवायद होनी ही चाहिए। राजस्थान में ऐसी कसरत वर्ष 2007-2008 में हुई थी। तत्कालीन सरकार ने पायलट प्रोजेक्ट के तहत जिला अस्पतालों में हैल्थ मैनेजर लगाए थे। लेकिन, अस्पतालों के प्रमुख चिकित्सा अधिकारी और हैल्थ मैनेजर्स के बीच रस्साकसी होने लगी थी। आखिर, चिकित्सकीय लॉबिंग के बाद वह व्यवस्था डेढ़-दो वर्ष में दम तोड़ गई। कई हैल्थ मैनेजर बीच में नौकरी छोड़ गए तो शेष का सरकार ने कार्यकाल नहीं बढ़ाया।
एक बार पुन: ऐसे ही किसी तंत्र के विकास की कसरत होनी ही चाहिए। सहायक कार्यपालक मजिस्ट्रेट स्तर के प्रशासनिक अधिकारी की इस पर नियुक्ति की जा सकती है, या अलग से चिकित्सा प्रशासनिक सेवा का गठन किया जा सकता है जो प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी हो।(https://twitter.com/dhitendrasharma/status/1213658287947698177)
ऐसा अधिकारी और उसके अधीनस्थ स्टाफ स्टोर, दवा, उपचार उपलब्धता से लेकर छत, टोंटी, सफाई तक की समस्त प्रशासनिक व्यवस्थाएं देखे। वह सीधे संभागीय आयुक्त/ जिला कलक्टर/ उपखंड अधिकारी के नियंत्रण में कार्य करे। जांच और कार्रवाई की कार्यालय अध्यक्ष तुल्य शक्तियों वाली यह व्यवस्था निस्संदेह सरकारी अस्पतालों में व्यवस्थागत तस्वीर बदल देगी। तब ना तो जेकेलोन जैसे बिना किवाड़-खिड़की से आई ठंड से बच्चे मरेंगे और ना अलवर जैसे वार्मर से झुलसेंगे। व्यवस्थाएं संभालने में वर्षों से नाकाम साबित हो रहे चिकित्सकों की इस आपत्ति को बेशक दरकिनार किया जाना चाहिए। आखिर, अपने निजी अस्पतालों में वे खुद भी तो प्रबन्धन अधिकारी अलग नियुक्त करते ही हैं, तो सरकारी अस्पतालों में सुधार से ईर्ष्या क्यों? हां, जिन चिकित्सकों की इसमें रुचि है वे विभागीय अंक लाभ के साथ तय चयन प्रक्रिया में हिस्सा लेकर पदासीन हो सकते हैं।
आखिर, जनसंख्या के रूप में किसी के जीवन को राष्ट्र ने स्वीकार कर लिया है तो ईश्वर प्रदत्त आयु 100 वर्ष तक उसकी निर्बाध यात्रा सरकारों की जिम्मेदारी होनी ही चाहिए।  #KotaTragedy #KotaChildDeath #KotaKeDoshi

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Thursday, January 2, 2020

#JKLonHospitalKota : इन मौतों पर शोक के बजाय हल्ला क्यों?


-धीतेन्द्र कुमार शर्मा

पिछले आठ दिन से जो कुछ  #जेकेलोनअस्पतालकोटा के नाम पर हो रहा उसमें मुझे लोकतंत्र के स्थापित और स्वयंभू स्तंभों के द्वारा आमजनता का मखौल उड़ाने के सिवाय कुछ नहीं दिखता। मीडिया ट्रायल में ज्यों-ज्यों परतें उधड़ रही हैं क्रूर अट्टहास और बढ़ता जा रहा। दोष किसे दें, उन राजनेताओं को जो पांच-पांच वर्ष के राज्याधिकार के प्रति आश्वस्त भाव से कर्मरत हैं, या उन जनप्रतिनिधियों को जिन्हें अपने दो दशकीय चुनावी जनप्रतिनिधित्व जीवन में राज्य और देश की सर्वोच्च पंचायत तक में बैठते वक्त यह सब होता नहीं दिखा, भले ही इस दौरान उनके दल शासन में रहे। या फिर उन सरकारी मुलाजिमों को, जो इन भाईसाहबजनों के साथ जुगलबंदी निभाने में ही अधिक योगरत रहते हैं, अथवा वर्षों से अनवरत दम तोड़ तोड़ती सांसों के प्रति उतने ही अनुकूलित हो गए हैं, एवरेज डेथ रिव्यू से ऊपर उनकी नजरें नहीं जाती। या फिर दोष उन स्वयंभू चौकीदारों को दें जो सबकुछ देखने के बावजूद इन भाईसाहबजनों के एंगल से विचार कर, चौतरफा सरकारी सिस्टम से रिश्तों या कथित सामाजिक सरोकारों में भागीदारी की प्रबन्धकीय बंदिशों के मद्देनजर संतुलन साधकर साख-सेवा बचाकर कुछ प्रकाश में लाना चाहते हैं।

बहरहाल, पिछली 25 तारीख से हल्ला ये मचा है कि 23 और 24 दिसंबर को जेकेलोन में 10 बच्चों की मौत हो गई। प्रमुख समाचार-पत्रों में यह कथित एक्सक्लूसिव की तरह ब्रेक हुई। #रणवीरचौधरीहत्यांकांड और #पन्नालालरिश्वतप्रकरण में पन्ने लाल करने में ध्यानकेन्द्रित चतुर्थ स्तंभ के पैरोकारों ने इसे (एकाध को छोड़कर)अन्दर के पन्नों पर स्थान दिया। एकाधिक समाचार-पत्रों में खबर एक साथ ब्रेक होना भी जेकेलोन अस्पताल के अन्दरूनी हालात का संकेत तो देता ही है। इसके दो दिन बाद 27 दिसंबर को घूमे राजनीतिक घटनाक्रम के तहत पिछले 6 वर्ष से कोटा से सांसद और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को ट्वीट कर जेकेलोन अस्पताल के बारे में अवगत कराया। उसी दिन केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर तंज कसा कि पहले कोटा के अस्पताल के हालात देखकर आएं।

इसके बाद जो कोहराम मचा हुआ है शायद शोकसंतृप्त भी अचंभित हों। बात भाजपा-कांग्रेस की सरकारों की आ गई। सीएम समर्थक-विरोधी खेमे सक्रिय हो गए। मेडिकल कॉलेज प्रशासन स्तर पर जांच कमेटी बनी, जयपुर से चिकित्सा शिक्षा सचिव वैभव गालरिया के नेतृत्व में एक्सपर्ट कमेटी जांच को भेजी गई। साल भर पहले राजस्थान में सत्ता से दूर हुई और दो वर्ष पूर्व स्वाइन फ्लू-डेंगू से कोटा में ही हुई बेशुमार मौतों को नकार कर फजीहत कराने वाली भाजपा ने अपनी जांच कराई। जांच करने भी तत्कालीन चिकित्सा मंत्री ही आए। राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग की टीम भी आई। इन सब में गौरतलब बात यह कि मूल खबर को अन्दर के पेज पर साधारण डिस्प्ले में सिमेटने वाले बैनर अब पेज निकालने लगे। इस राजनीतिक हल्ले को कवर करने और मीडिया ट्रायल की जैसे होड़ लग गई।  इधर, इस सबके बीच बच्चों का मरना जारी रहा और वर्षान्त तक दिसंबर माह में मौतों का आंकड़ा 100 के अंक को छू गया। यूं भी इस माह 77 बच्चे तो 24 तारीख तक दम तोड़ ही चुके थे।

सामूहिक लापरवाही का दुष्परिणाम

इस ट्रायल में ऐसे आंकड़े सामने आते रहे जिनसे धूर्तता बेनकाब होती रही। कीचड़ सब पर उछला, कुछ पर प्रत्यक्ष, कुछ पर अप्रत्यक्ष। लोगों को इसने चिंतन में डाला भी। हर साल #जेकेलोनअस्पताल में हजार से ऊपर नवजात मौत के आगेाश में चले जाते हैं। वर्ष 2014 से ढंकी चादर उघड़ गई। वर्ष 2014 में 1198, साल 2015 में 1260, 2016 में 1193, 2017 में 1027, 2018 में 1005 और इस साल 963 बच्चे काल के गाल में समाए। सत्ता के वर्ष और दलीय आरोपों की झड़ी इससे समझ सकते हैं। बच्चों के भर्ती होने के आकड़ों के लिहाज से 6 से साढ़े 7 प्रतिशत के बीच मौतों का आंकड़ा विभिन्न वर्षों में झूलता रहा।

हल्ले के बीच बैठी जांचों के नतीजे कोई चमत्कारिक नहीं रहे। स्थानीय जांच कमेटी ने जैसे मानस ही बना रखा था कि ज्यादातर बच्चे गंभीर थे, बचाया नहीं जा सकता था। रैफरल अस्पताल है, गंभीर ही आते हैं। जयपुर की धमक से आई डाक्टरी कमेटी ने इलाज में लापरवाही नहीं मानी। व्यवस्थागत खामियां जरूर मानी जैसे अस्पताल में गंदगी, दरवाजे खिड़कियां टूटी होना, टोंटी टिपकना, ऑक्सीजन लाइन जैसे पर्याप्त संसाधनों का अभाव वगैरह-वगैरह।

सवाल यह कि वर्ष 1972 में बने इस अस्पताल में ये सब हालात क्या अचानक हो गए। इन 47 साल में 10 सरकारें शासन में रही। अभी 11 वीं सरकार है। पांच बार जनता पार्टी अथवा भाजपा और शेष बार कांग्रेस शासन में रही। गंदगी डिस्पोजल, टोंटी खिड़कियां तक ठीक नहीं करा पाए हम। वे लोग भी नहीं जो कोटा के विकास पुरुष होने का दम भरते हैं, इस दौरान सत्ता में आए। और, वैकासिक पत्रकारिता का दम भरने वाले मीडिया समूहों के लिए क्या ये बड़ा मुद्दा नहीं था? या उनके अभियान के परिणाम सकारात्मक आने की सुनिश्चितता नहीं थी। जांच कमेटियों में आने वाले उच्च स्तर के अफसरों का यात्रा भत्ता तक संभवत: इन खिड़कियोंं के काच, टोटी अथवा अन्य छोटी-मोटी जरूरतों से अधिक बन जाता है। स्पष्टत: यह मौतों का सिलसिला लोकतंत्र के इन स्तंभों की सामूहिक लापरवाही का दुष्परिणाम है। अब भी राजनीतिक व कार्यपालिकीय संतुलन के साथ चलना आम जन को स्पष्ट दिख रहा है। जिन दिवंगत बच्चों के नाम पर ये सब सुखियां बटोर रहे, उनके शोक संतृप्त परिजनों का हाल जानने एक दो मीडियाकर्मियों के अलावा कोई दिग्गज नहीं गया। ना ही औसतन मौतों के प्रति अभ्यस्त चिकित्सा प्रशासन को कोई अफसोस है।

एक्शन के नाम पर....

एक्शन के नाम पर किसी अधीक्षक को हटाना दिखाना और नए का पदभार समारोह मनाना कहां की नैतिकता? और, बाल कल्याण समिति के नाम पर कुर्सियां संभालने, इसी हैसियत से निरीक्षण करने जाते वक्त जूते पहन इमरजेंसी में पहुंचना संक्रमण की जांच में गंभीरता कही जाएगी?
और, लोकसभा अध्यक्ष के ट्वीट से जागने और हांफने जितना दौडऩे वाले मीडिया के लिए क्या कहें?
इतने हो-हल्ले के बाद सुकून की बात बस यही है कि एक करोड़ की अटकी हुई वित्तीय स्वीकृति मिल गई, 300 बैड के नए बच्चों के अस्पताल की जरूरत पर गंभीर विचार शुरू हुआ है।  मेडिकल कॉलेज के शिशुरोग विभागाध्यक्ष फिलहाल जेकेलोन में बैठने लग गए हैं। बाकी, जांचों का हश्र तो परंपरागत डाक्टरी जांच की तरह होना ही है।

ईश्वर सद्बुद्धि दें ...

ईश्वर जिम्मेदारों को सद्बुद्धि दें और जेकेलोन के ही बहाने सही, सत्तानीति से दूर सर्वदलीय सहमति से ऐसी कार्ययोजना बन जाए कि अस्पतालों में नवजात मौतों का सिलसिला थमे। ना ठंडी हवा उनका दम तोड़े और ना वार्मर जलाए। और, एक भी बच्चे की मौत पर चिकित्सा स्टाफ का हृदय सिसकियां भरने लगे ऐसा चमत्कार सिस्टम में हो जाए तो शायद इन बच्चों को अद्भुत श्रद्धांजलि होगी। आइये, शोकसंलिप्त चिंतन कर सभी कुछ संकल्प करें। #KotaTragedy #KotaKeDoshi #KotaChildDeath
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